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विकारः] मापाजकापतः।
न्हुआ । मौरेठी दोनों छोड़ना चाहिये । क्योंकि दो मौरेठीको प्रक्षिप्य कलशे सम्यक्सुनिगुप्त निधापयेत् ॥१०२।। जातियां हैं ॥९०-९४ ॥
बलतिलमिदं नाम्रा सर्ववातविकारनुत् । एलादितैलम् ।
यथाबलमितो मात्रां सूतिकार्य प्रदापयेत् ॥ १०३॥
या च गर्भार्थिनी नारी क्षीणशुक्रश्च यः पुमान् । एलामुरासरलशैलजदारुकोन्ती
क्षीणवाते मर्महतेऽभिहते मथितेऽथवा ॥१०४॥ चण्डाशटीनलदचम्पकहेमपुष्पम् ।
भने श्रमाभिपन्ने च सर्वथैवोपयोजयेत् । स्थोणेयगन्धरसपूतिदलामृणाल
सर्वानाक्षेपकादींश्च वातव्याधीव्यपोहति ।।१०५॥ श्रीवासकुन्दुरुनखाम्बुवराङ्गकुष्ठम् ॥ ९५ ॥
हिक्काकासमधीमन्थं गुल्मश्वासं सुदुस्तरम् । कालीयकं जलदकर्कटचन्दनश्री
षण्माषानुपयुज्यैतदन्त्रवृद्धिमपोहति ॥ १०६॥ र्जात्याः फलं सविकसं सहकुंकुम च ।
प्रत्यप्रधातुः पुरुषो भवेच्च स्थिरयौवनः । स्पृकातुरुष्कलघु लाभतया विनीय
एतद्धि राज्ञा कर्तव्यं राजमात्राश्च ये नराः॥१०७॥ तैलं बलाक्कथनदुग्धयुतं च दशा ॥९६ ॥
सुखिनः सुकुमाराश्च बलिनश्चापि ये नराः। सार्ध पचेत्तु हितमेतदुदाहरन्ति वातामयेषु बलवर्णवपुःप्रकारि ॥
खरेटीकी जड़का क्वाथ, दशमूलका काथ, यव;
बेर, कुलथीका क्वाथ तथा दूध प्रत्येक ८ भाग, तिलछोटी इलायची, मुरामांसी, सरल ( देवदारुविशेष ) भूरि
तैल १ भाग तथा जीवकादि मधुर गणकी औषधियाँ व सेंधाछरीला, देवदारु, सम्भालूके बीज, चोरक, कधूर, जटामांसी,
नमक, अगर, राल, सरल, देवदारु, मीठ, चन्दन, कूठ, चम्पा, नागकेशर, थुनेर बोल, खट्टाशी, तेजपात, कमलकी
इलायची, काली शारिवा, जटामांसी, छरीला, तेजपात, तगर, डण्डी, गन्धाविरोजा, तापनि, नख, सुगन्धवाला, दालचीनी,
शारिवा, वच, शतावरी, असगन्ध, सौंफ, पुनर्नवाकी जड़ कूठ, तगर, नागरमोथा, काकड़ाशिंगी, सफेद चन्दन, जायफल,
| सबका कल्क, तैलसे चतुर्थांश मिलाकर सिद्ध किया तैल सोने, मजीठ, केशर, चतुर्गुण खरेटीका काथ तथा उतना दूध व |
चांदी अथवा मिट्टीके बर्तनमें रखकर समयपर प्रयोग करना उतना ही दही मिलाकर पकाना चाहिये । यह तैल वातरोगोंको
चाहिये । यह वातरोगोंको नट करनेवाला "बलातैल" है। इसकी नष्ट करता तथा बल, वर्ण व शरीरको उत्तम बनाता
मात्रा बलके अनुसार सूतिका स्त्रीको देना चाहिये । जो स्त्री गर्भकी इच्छा करती है अथवा जो पुरुष क्षीण हो गया है तथा
क्षीणतासे बढ़े हुए वायु तथा मर्माभिघात अथवा कहीं आभबलाशैरीयकतैले।
घात या मथित हो, टूट गया हो अथवा थकावट हो इनमें बलानिष्काथकल्काभ्यां तैलं पक्कं पयोऽन्वितम् । इसका प्रयोग करना चाहिये । आक्षेपकादि समस्त बातरोगोंको सर्वबातविकारघ्रमेवं शैरीयपाचितम ॥९७॥ नष्ट करता तथा हिक्का, कास, अधिमन्थ, गुल्म, श्वासको नष्ट बलाके क्वाथ व कल्क अथवा कटसैलाके काथ व कल्कसे सिद्ध करता है । इसके ६ मासतक प्रयोग करनेसे अन्त्रवद्धि नष्ट तेल समस्त वातरोगोंको नष्ट करता है । इसमें तैलके समान दूध
| होती है, नवीन धातु बनते हैं, यौवन स्थिर होता है । यह भी छोड़ना चाहिये ॥९॥
राजाओं, धनिकों, सुखी पुरुषों, सुकुमार तथा बलवानोंके लिये
बनाना चाहिये ॥९८-१०७॥ - महावलातैलम् । बलामूलकषायस्य दशमूलीकृतस्य च ।
नारायणतैलम् । यवकोलकुत्थानां काथस्य पयसस्तथा ॥ ९८॥ बिल्वामिमन्थश्योनाकपाटलापारिभद्रकाः । अष्टावष्टी शुभा भागास्तैलादेकस्तदेकतः। प्रसारण्यश्वगन्धा च बहती कण्टकारिका ॥१०८।। पचेदावाप्य मधुरं गणं सैन्धवसंयुतम् ॥ ९९ ॥ बला चातिबला चैव श्वदंष्ट्रा सपुनर्नवा । तथागुरु सर्जरसं सरलं देवदारु च।
एषां दशपलान्भागीश्चतुद्रोणेऽम्भसः पचेत्॥१०९॥ माजिष्ठां चन्दन कुष्ठमेलां कालानुशारिवाम् ॥१००/मांशी शैलेयकं पत्रं तगरं शारिवां वचाम् । । -इसके आगे नवीन पुस्तकोंमें विष्णुतैल नामक एक तैल शतावरीमश्वगन्धा शतपुष्पां पुनर्नवाम् ।। १०१॥ लिखा है । पर प्राचीन प्रातियोंमें न होनेके कारण उसे यहां न तत्साधु सिद्धं सौवर्णे राजते मृण्मयेऽपि वा। लिखकर प्रकरणके अन्तमें लिखा है ॥