Book Title: Chakradutt
Author(s): Jagannathsharma Bajpayee Pandit
Publisher: Lakshmi Vyenkateshwar Steam Press

View full book text
Previous | Next

Page 281
________________ चक्रदत्तः। [कर्णरोगाजन्मन्न्न्न्न्न्न्न्न्न वार्ताकुधूमश्च हितः सर्षपस्नेह एव च। विपगर्भ तिक्ततुम्बीतेलमष्टगुगे खरात् ॥ ५४॥ हलिसूर्यावर्तव्योषस्वरसेनातिपूरिते ॥ ४६ ॥ मूत्रे पक्वं तदभ्यङ्गात्कर्णपालविवर्धनम् । कर्णे पतन्ति सहसा सवास्तु क्रिामजातयः।। कल्केन जीवनीयेन तैलं पयास साधितम् ।। ५५ ॥ . नीलवहारसस्तैलसिन्धुकाजिकसंयुतः॥४७॥ | आनुपमांसक्काथेन पालीपोषणवर्धनम। • कदुष्णः पूरणात्कणे निःशेषक्रिमिपातनः । माहिषनवनीतयुतं सप्ताहं धान्यराशिपरिवासितम् ५६ 'धूपनः कर्णदोर्गन्ध्ये गुग्गुलुः श्रेष्ठ उच्यते ॥४८॥ नवमुसलिकन्दचूर्णमृद्धिकरं कर्णपालीनाम् । सूर्यावर्तका स्वरस, सम्भालूका रस तथा कलिहारीका रस शतावरी, असगन्ध, क्षीरविदारी व एरण्डबीजके कल्क त्रिकटुके चूर्णके साथ कानमें छोड़नेसे कानके कीड़े नष्ट होते दूबके सहित पकाया तैल कर्णपालियोंको पुष्ट करता है । इसी हैं । तथा कानके क्रिमिनाशार्थ क्रिमिन्नविधिका प्रयोग करना प्रकार गुजाके चूर्णके साथ पकाय भैंसीके दूधसे निकाले चाहिये । इसके लिये बैंगनका धुआँ तथा सरसोंका तेल भी मक्खनकी मालिश करनेसे कर्णपाली पुष्ट होता है । इसी प्रकार उत्तम है। कलिहारी, सूर्यावर्त और त्रिकटुके स्वरससे कानको सींगियाके कल्क, कडुई तोम्बीके बीजोंके तेल तथा गधेका भरनेसे कीड़े गिर जाते हैं । इसी प्रकार नीलका रस, तैल, अठगुना मूत्र छोड़कर सिद्ध तैलकी मालिश करनेसे कर्णपाली सेंधानमक व काजीको मिलाकर कुछ गरम गरम कानमें बढ़ती है। तथा जीवनीय कल्कसे दूधके साथ आनूप मांसका छोड़नसे समग्र कीड़े गिर जाते हैं । तथा कानकी दुर्गंधिमें क्वाथ छोड़कर सिद्ध तैलकी मालिशसे कर्णपालीको पुष्ट करता गुग्गुलुकी धूप देना श्रेष्ठ है ॥ ४४-४८॥ तथा बढ़ाता है। इसी प्रकार भैसीके मक्खनको सात दिन धान्यराशिमें रख नवीन मुसलीकन्दके चूर्णको छोड़ मलनेसे धावनादि। कर्णपालीको बढ़ाता है ॥ ५२-५६ ॥राजवृक्षादितोयेन सुरसादिजलेन वा । कर्णप्रक्षालनं कार्य चूर्णरेतैः प्रपूरणम् ॥ ४९॥ दुर्व्यधादिचिकित्सा । घृतं रसानं नार्याः क्षीरेण क्षौद्रसंयुतम् । । कर्णस्य दुर्व्यधे भूते संरम्भो वेदना भवेत् ॥५७ ॥ प्रशस्यते चिरोत्थेऽपि सास्रावे पूतिकर्णके ॥ ५० ॥ तत्र दुर्व्यधरोहाथै लेपो मध्वाज्यसंयुतः। राजवृक्षादि अथवा सुरसादिके क्वाथसे कानको धोना तथा मधूकयवमाजिष्ठारुबुमूलैः समन्ततः ॥ ५८ ॥ इन्हींका चूर्ण छोड़ना तथा घी, रसौंत, स्त्रीका दूध और शहद अनेकधा तु च्छिन्नस्य सन्धेः कर्णस्य वै भिषक् । . मिलाकर छोड़नेसे पुराने बहते हुए दुर्गन्धियुक्त कानको शुद्ध | यो यथाभिनिविष्टः स्यात्तं तथा विनियोजयेत्५९।। करता है । ४९ ॥ ५॥ धान्याम्लोप्णोदकाभ्यां तु सेको वाते। दूपिते । कुष्ठादितैलम् । रक्तपित्तेन पयसा श्लेष्मणा तूष्णवारिणा ।। ६० ।। "कुष्ठहिंगुवचादारुशताबाविश्वसैन्धवैः । ततः सीव्य स्थिरं कुर्यात्संधि बन्धेन वा पुनः । पतिकर्णापतैलं बस्तमत्रेण साधितम ॥५१॥ | मध्धाज्येन ततोऽभ्यज्य पिचूना सन्धिवेष्टकम् । फूठ, हींग, बच, देवदारु, सौंफ, सोठ, व सेंधानमक कपालचूर्णेन ततश्चूर्णयेत्पथ्ययाथवा ॥ ६१ ॥ इनके कल्कको बकरके मूत्र में मिलाकर सिद्ध किया गया तैल कानके ठीक व्यध न होनेपर सूजन तथा पीड़ा होती है । कानकी दुर्गधिको नष्ट करता है ॥ ११ ॥ अतः उसके भरने के लिये शहद व घीसे मिलित महुआ, यव, कर्णविद्रधिचिकित्सा । | मजीठ व एरण्ड तैलका लेप करना चाहिये । तथा अनेक प्रकारसे -विद्रधी चापि कुर्वीत विद्रध्युक्तं हि भेषजम् । | कटे कानकी सन्धि जो जहां बैठ सके, उसे वहां लगाना कर्ण विद्रधिमें विद्रधिकी चिकित्सा करना चाहिये । चाहिये । वातदूषितमें काजी व गरम जलका सेक, रक्तपित्तसे दूषितमें दूधसे, तथा कफसे दूषितमें गरम जलसे सेक करना कर्णपालीपोषणम् । चाहिये। फिर सौंकर अथवा बंधसे संधिको ठीक करना चाहिये। शतावरीवाजिगन्धापयस्यैरण्डबीजकैः ।। ५२ ॥ फिर घी, शहद चुपड़कर खाके चूर्ण अथवा छोटी हरॉके तैलं विपकं सक्षीरं पालीनां पुष्टिकृत्परम् । चूर्णको उसना चाहिये ॥ ५७-६१ ॥ गुखाचूर्णयुते जाले माहिषे क्षीर' उद्गतम् ॥ ५३॥ . इति कर्णरोगाधिकारः समाप्तः। • नवनीत तदभ्यङ्गात्कर्णपालिविवर्धनम् ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374