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धिकारः]
भाषार्टीकोपेतः।
(२१३)
मनःशिलादिलेपः।
पीस तिलतैलमें मिलाकर लेप करनेसे समस्त कुष्ठ नष्ट होते मनःशिलात्वक्कुटजात्सकुष्ठातू सलोमशः सैडगजः करतः।
विडंगादिलेपः। प्रन्थिश्च भौर्जः करवीरमूलं
विडासैन्धवशिवाशशिरेखासंर्षपकर जरजनीभिः चूर्णानि साध्यानि तुषोदकेन ॥१३॥ गोजलपिष्टो लेपः कुष्ठहरो दिवसनाथसमः।। १८ ।। पलाशनिदाहरसेन वापि
वायविडंग, सेंधानमक, हर्र,वकुची, सरसों, कजा, व हल्दीको कर्पोद्धृतान्याढकसंमितेन ।
गोमूत्रमें पीसकर बनाया गया लेप कुष्ठको नष्ट करनेमें सूर्यके दार्वीप्रलेप प्रवदन्ति लेप
समान है। सूर्यचिकित्सा ( रश्मिचिकित्सा) से भी कुष्ठ नष्ट होता
हैं ॥ १८ ॥ मेतत्परं कुष्ठविनाशनाय ॥१४॥
अपरो विडंगादिः। मनशिल, कुरैयाकी छाल, कूठ, कसीस, पांडके बीज, कजा, भोजपत्रकी गांठ, तथा कनैरकी जड़ प्रत्येक एक एक| विडङ्गडगजाकुष्ठनिशासिन्धूत्थसपैः। तोलेका चूर्ण एक आढ़क भूसी सहित अन्नकी काजी अथवा धान्याम्लपिष्टैर्लेपोऽयं दद्दूकुष्ठरुजापहः ॥१९॥ ढाकके वृक्षको जलाकर नीचे टपके हुए रसके साथ अवलेहके वायविडंग, पांड़, कूठ, हल्दी, सेंधानमक व सरसोंसमान कल्छीमें चिपटने तक पकाना चाहिये । यह कुष्ठ नाश को काजीमें पीसकर लेप करनेसे ददु कुष्ठ नष्ट होते करनेमें श्रेष्ठ है ॥ १३ ॥ १४ ॥
हैं॥ १९॥ कुष्ठादिलेपः।
दूर्वादिलेपः। कुष्ठं हरिद्रे सुरसं पटोले
दूर्वाभयासैन्धवचक्रमर्दनिम्बाश्वगन्धे सुरदारुशिमू।
कुठेरकाः काजिकतक्रपिष्टाः । ससर्षपं तुम्बुरुधान्यवन्यं
त्रिभिः प्रलैपैरतिबद्धमूलं चण्डाञ्च दूर्वाञ्च समानि कुर्यात् ॥ १५॥ दर्दू च कुष्ठं च निवारयन्ति ॥२०॥ तैस्तक्रयुक्तः प्रथमं शरीरं
दूर्वा, बड़ी हरें, सेंधा नमक, चकवड़, तथा वनतुलसीको तैलाक्तमुद्वर्तयितुं यतेत ।
काजी तथा मझेंमें पीसकर तीन बार लेप करनेसे ही गहरे दाद तथाऽस्य कण्डूः पिडकाः सकोष्ठाः
और कुष्ठ नष्ट होते हैं ॥२०॥ कुष्ठानि शोथाश्च शमं प्रयान्ति ॥१६॥
ददुगजेंद्रसिंहो लेपः। कूठ, हल्दी, दारुहल्दी, तुलसी, परवलकी पत्ती, नीम, तुल्यो रसः सालतरोस्तुषेण असगन्ध, देवदारु, सहिजन, तुम्बुरु, सरसों, धनियां, केवटी
सचक्रमर्दोऽप्यभयाविमिश्रः । मोथा, दन्ती और दूर्वा समान भाग ले मद्रुमें मिला
पानीयभक्तेन तदाऽम्बुपिष्टो कर पहिले तैल लगाये हुए शरीरमें उबटन करना चाहिये ।।
लेपः कृतो ददुगजेंद्रसिंहः ॥ २१ ॥ इससे खुजली, फुन्सियां, ददरे, कुठ और सूजन शान्त होती
शालका रस ( राल ), धानकी भूसी, चकवड, तथा हैं ॥ १५॥ १६ ॥
बड़ी हर्रका छिल्का इनको चावलके जलमें पीसकर लेप करनेसे त्रिफलादिलेपः।
ददरूपी गजेन्द्रको सिंहके समान नष्ट करता है ॥२१॥ धात्र्यक्षपथ्याक्रिमिशत्रुवहि
विविधा लेपाः। भल्लातकावल्गुजलोहभृङ्गः।
प्रपुन्नाडस्य बीजानि धात्री सर्जरसः स्नुही । भागाभिवृद्धैस्तिलतैलमित्रैः
सौवीरपिष्टं ददूणामेतदुद्वर्तनं परम् ॥ २२ ॥ सर्वाणि कुष्ठानि निहन्ति लेपः ॥१७॥ | चक्रमर्दकबीजानि करखं च समांशकम् । आमला १ भाग बहेड़ा २ भाग, हर्र ३ भाग, वायविडंग|
स्तोकं सुदर्शनामूलं ददुकुष्ठविनाशनम् ॥२३ ।। ४ भाग, चीतकी जड़ ५ भाग, भिलावां ६ भाग, वकुची| लेपनाद्भक्षणाच्चैव तृणकं दद्रुनाशनम् । ७ भाग, लौहचूर्ण ८ भाग तथा भंगरा ९ भाग सबको युथीपुत्रागमूलं च लेपात्काजिकपषितम् ॥ २४ ॥