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(२१८)
चक्रदत्तः।
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सप्तधा पञ्चनिम्बं तु मार्कवस्वरसेन तु ।
चित्रकादिगुग्गुलुः। स्निग्धशुद्धतनु/मान्योजयेच्च शुभे दिने ॥ ८०॥ चित्रकं त्रिफलां व्योषमजाजी कारवीं वचाम् । मधुना तिक्तहविषा खदिरासनवारिणा । सैन्धवातिविषे कुष्ठं चव्यैलायावशूकजम् ॥ ८७ ॥ लेह्यमुष्णाम्बुना वापि कोलवृद्धया पलं पिबेत् ॥८१) विडङ्गान्यजमोदां च मुस्तान्यमरदारु च । जीर्णे च भोजनं कार्य स्निग्धं लघु हितं च यत्८२॥ यावन्त्येतानि सर्वाणि तावन्मानं तु गुग्गुलुम्॥८८॥ विचर्चिकोदुम्बरपुण्डरीक
संक्षुद्य सर्पिषा सार्ध गुडिकां कारयेद्भिषक् । __ कपालदकिटिमालसादीन् ।
प्रातर्भोजनकाले च भक्षयेत्तु यथाबलम् ।। ८९ ॥ शतारुविस्फोटविसर्पपामां
हन्त्यष्टादश कुष्ठानि क्रिमीन्दुष्टव्रणानि च । कफप्रकोपं त्रिविधं किलासम् ।। ८३ ॥
ग्रहण्यशोविकारांश्च मुखामयगलग्रहान् ॥९॥
गृध्रसीमथ भग्नं च गुल्मं चाशु नियच्छति । भगन्दरश्लीपदवातरक्त
व्याधीन्कोष्ठगतांश्चान्याञ्जयद्विष्णुरिवासुरान्॥११॥ ___जातान्ध्यनाडीव्रणशीर्षरोगान् । सर्वान्प्रमेहान्प्रदरांश्च सर्वान्
चीतेकी जड़, त्रिफला, त्रिकटु, जीरा, काला जीरा, बच, दंष्ट्राविवं मूलविषं निहन्ति ॥ ८४ ॥
सैंधव, अतीस, कूठ, चव्य, इलायची, जवाखार, वायविडंग,
अजमोद, नागर मोथा तथा देवदार प्रत्येक समान भाग कूट स्थूलोदरः सिंहकृशोदरश्च
छान सबके समान गुग्गुलु मिलाकर गोली बना लेनी चाहिये । सुश्लिष्टसन्धिर्मधुनोपयोगात्। प्रातः तथा भोजनके समय बलानुसार इसका सेवन करना समोपयोगादपि ये दशन्ति
चाहिये । यह अठारह प्रकारके कुष्ट, क्रिमि, दुष्ट व्रण, प्रहणी, सर्पादयो यान्ति विनाशमाशु ।। ८५॥
| अशोरोग, मुखरोग, गलरोग, गृध्रसी, भन्न तथा ओष्ठगत रोगोंको जीवेचिरं व्याधिजराविमुक्तः
जैसे विष्णु राक्षसोंको नष्ट करते हैं वैसे ही नष्ट करता है८७-९१ शुभे रतश्चन्द्रसमानकान्तिः ॥८६॥
भल्लात नीमके फूलोंके समय फूल और फलोंके समय फल ले |
पञ्च भल्लातकांश्छित्त्वा साधयेद् विधिवज्जले।
कषायं तं पिबेच्छीतं घृतेनाक्तोष्ठतालुकः ॥ ९२ ॥ सुखाकर तथा नीमकी ही छाल, मूल व पत्तीको सुखाकर प्रत्येक २ भाग तथा त्रिफला, त्रिकटु, ब्राह्मी, गोखुरू, भिलावां, चीतकी
पञ्चवृद्धथा पिबेद्यावत्सप्तति हासयेत्ततः। जड़, वायविडंग, वाराहीकन्द, लोहभस्म, गुर्च, हल्दी, दारुहल्दी,
जीर्णेऽद्यादोदनं शीतं घृतक्षीरोपसंहितम् ॥ ९३॥ वकुची, अमलतास, शक्कर, कूठ, इन्द्रयव तथा पाढ़ प्रत्येक एक एतद्रसायनं मेध्यं बलीपलितनाशनम् । भाग ले चूर्ण कर कत्था विजेसार और नीमके गाढे क्वाथकी | कुष्ठार्श:क्रिमिदोषघ्नं दुष्टशुक्रविशोधनम् ॥ ९४॥
भावना देनी चाहिये । फिर इस चूर्णको भांगरेके स्वरसकी ७ पञ्च भिलावोंको दुरकुचाकर जलमें विधिपूर्वक क्वाथ बनाना भावना देनी चाहिये । फिर शुष्क चूर्ण कर निग्ध और विरे- चाहिये । फिर ओठों तथा तालमें घी लगाकर ठण्ढ़ा क्वाथ पीना चनादिसे शुद्ध शरीर होकर शुभ मुहूतेमें शहद अथवा तिक्त घृत | चाहिये । इसी प्रकार दूसरे दिन ५ बढ़ाकर अर्थात् १० भिलाअथवा कत्था व विजैसारके क्वाथके साथ अथवा गरम जलके वोका काथ पीना चाहिये । इस प्रकार जबतक ७० भिलावां न साथ ६ माशेसे १ पल तक प्रयोग करना चाहिये । औषध पच हो जाय, तबतक बढ़ाना चाहिये । फिर क्रमशः ५ पांच ही जानेपर चिकना लघु हितकारक भोजन करना चाहिये । यह प्रतिदिन घटाना चाहिये । औषध पच जानेपर घी और दूधके विचचिका, उदुम्बर, पुंडरीक, कपाल, द्रु, किटिभ, अलस, | साथ भात खाना चाहिये । यह रसायन है । मेधाको बढ़ाता, शतारु, विस्फोटक, विसर्प, पामा, कफरोग, किलास, भगन्दर, झुर्रियों तथा बालोंकी सफेदीको नष्ट करता, कुष्ट, अर्श, किमिलीपद, वातरक्त, दृष्टिदोष, नाडीव्रण, शिरीरोग, प्रमेह, प्रदर, दोषको दूर करता तथा दूषित शुक्रको शुद्ध करता है॥९२-९४॥ दंष्टाविष तथा मूलविष आदिको नष्ट करता है। शहदके साथ सेवन करनेसे मोटे पेटवाले सिंहके समान कृशोदर हो जाते है।
भल्लातकतैलप्रयोगः। इसको एक वर्षभर लेनेवालेको यदि सर्प काट खाते हैं, तो वे| तैलं भल्लातकानां च पिबेन्मासं यथाबलम् । (सर्प ) ही तत्काल मर जाते हैं। इसका सेवन करनेवाला व्याधि | सर्वोपतापनिर्मुक्तो जीवेद्वर्षशतं दृढम् ॥ ९५ ॥ तथा वृद्धतादिसे रहित हो चन्द्रसमान कान्तियुक्त शुभ कर्म करता महनितक भिलावेके तैलका बलानुसार सेवन करनेसे समस्त हुआ अधिक समयतक जीता है ॥७६-८६ ॥
दुःखोंसे रहित होकर १०० वर्षतक जीता है ॥ ९५॥