Book Title: Chakradutt
Author(s): Jagannathsharma Bajpayee Pandit
Publisher: Lakshmi Vyenkateshwar Steam Press

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Page 266
________________ धिकारः भाषाटीकोपेतः। r द्वितीयं कुङ्कुमादितैलम् । पुराणमथ पिण्याकं पुरीषं कुक्कुटस्य वा । मूत्रपिष्टं प्रलेपोऽयं शीघ्र हन्यादरूंषिकाम् ॥७६॥ कुङ्कुमं किंशुकं लाक्षा मजिष्ठा रक्तचन्दनम् ।। कालीयकं पद्मकं च मातुलुङ्गस्य केशरम् ॥ ६७ ॥ अरूंषिघ्नं भृष्टकुष्ठचूर्ण तेलैन संयुतम्। अरूषिकाओंमें शिराव्यध अथवा जोंकोंसे रक्त निकाल कुसुम्भं मधुयष्टीकं फलिनी मदयन्तिका । नीमके जलका सिञ्चनकर घोड़ेकी लीदके रस तथा सेंधानमकसे निशे द्वे रोचना पद्ममुत्पलं च मनःशिला ॥ ६८॥ लेप करना चाहिये । अथवा पुराना पीना अथवा मुर्गेकी विष्ठाको काकोल्यादिसमायुक्तैरे तैरक्षसमैभिषक् । मूत्रमें पीसकर लेप करनेसे फुन्सिया दूर होती हैं । इसी प्रकार लाक्षारसपयोभ्यां च तैलप्रस्थं विपाचयेत् ॥ ६९॥ भुने कूठके चूर्णको तैलमें मिलाकर लेप करनेसे अरूंषिका नष्ट कुक्कुमाद्यमिदं तैलमभ्यङ्गात्काञ्चनोपमम् । होती है ॥ ७५-७६ ॥करोति वदनं सद्यः पुष्टिलावण्यकान्तिदम् । हरिद्राद्वयतैलम् । सौभाग्यलक्ष्मीजननं वशीकरणमुत्तमम् ॥ ७० ॥ हरिद्राद्वयभूनिम्बात्रफलारिष्टचन्दनैः। केशर, ढाकके, फूल, लाख, मजीठ, लालचन्दन, दारुहल्दी एतत्तैलमरूंषीणां सिद्धमभ्यजने हितम् ॥ ७७॥ पद्माख, बिजौरे निम्बूका केशर, कुसुम, मौरेठी, प्रियंगु, चमेली, हल्दी, दारुहल्दी, गोरोचन, कमल, नीलोफर, मैनशिल तथा हल्दी, दारुहल्दी, चिरायता, आंवला, हरे, बहेडा, नीमकी काकोल्यादि. गणकी औषधियां प्रत्येक १ तोले लाखका रस तथा छाल, चन्दनके कल्को सिद्ध तैलकी मालिश करनेसे अरूंषिकाएँ दूध तेलसे चतुर्गुण मिलाकर तैल १२८ तोला छोडकर पकाना| नष्ट होती है ॥ ७७ ॥ चाहिये । यह "कुंकुमादि तैल"मालिश करनेसे मुखको कमलके दारुणचिकित्सा। समान बनाता तथा पुष्टि, मनोहरता, कांति, सौभाग्य व लक्ष्मीको बढ़ाता तथा उत्तम वशीकरण है ॥ ६७-७०॥ दारुणे तु शिरां विध्येस्निग्धां स्विन्नां ललाटजाम् । अवपीडशिरोबस्तीनभ्यङ्गाश्चावचारयेत् :॥७८ ॥ वर्णकं घृतम् । कोद्रवाणां तृणक्षारपानीयं परिधावने । मधुकं चन्दनं कङ्गु सर्षपं पद्मकं तथा। । कार्यो दारुणके मूर्ध्नि प्रलेपो मधुसंयुतः ।। ७९ ॥ कालीयकं हरिद्रा.च लोध्रमेभिश्च कल्कितैः ।।७१॥ प्रियालबीजमधुककुष्ठमिश्रेः ससैन्धवैः। विपचेद्धि घृतं वैद्यस्तत्पकं वस्त्रगालितम् । । कानिकस्थानिसप्ताहं माषा दारुणकापहाः ॥८॥ पादांशं कुङ्कुमं सिक्थंक्षिप्त्वा मन्दानले पचेतू७२/ दारुण रोगमें स्नेहन व स्वेदन कर मस्तककी शिराका व्यध तत्सिद्धं शिशिरे नीरे प्रक्षिप्याकर्षयेत्ततः।। करना चाहिये । तथा अवपीडक नस्य, शिरोबस्ति और तदेतद्वर्णकं नाम घृतं वर्णप्रसादनम् ॥ ७३ ॥ मालिश भी करनी चाहिये । धोनेके लिये कोदवके क्षार जलका अनेनाभ्यासलिप्तं हि वलीभूतमपि क्रमात् । प्रयोग करना चाहिये। तथा चिरौंजी, मौरेठी, कूठ व सेंधानमनिष्कलङ्केन्दुबिम्बाभं स्याद्विलासवतीमुखम् ॥ ७४॥ कको पीसकर शहदके साथ सिरमें लेप करना चाहिये । इसी मौरेठी, चन्दन, कांकुन, सरसों, पद्माख, तगर, हल्दी तथा | प्रकार काजीमें उड़द भिगो पीसकर २१ दिनतक लगानेसे लोधके कल्कको छोड़कर घीको पकावे । फिर उसे छानकर | दारुण रोग नष्ट होता है ॥ ७८-८०॥ चतुर्थाश केशर व मोम मिलाकर मन्द आंचसे पकावे। फिर इसे नीलोत्पलादिलेपः। ठण्ढे जलमें छोड़कर निकाल लेवे । यह "वर्णक" नाम घृत वर्णको सह नीलोत्पलकेशरयष्टीमधुकतिलैःसदृशमामलकम् । उत्तम बनाता है । इसे नियमसे लगानेसे स्त्रियोंका मुख चन्द्र चिरजातमपि च शीर्षे दारुणरोगं शमं नयति ॥८१ ।। माके समान सुन्दर होता है ॥ ७१-७४ ॥ नीलोफर, नागकेशर, मौरेठी, तिल तथा सबके समान अरूषिकाचकित्सा। आंवला मिलाकर लेप करनेसे पुराना दारुण रोग नष्ट होता है ॥ ८१ ॥ अरूंषिकायां रुधिरेऽवसिक्ते शिराव्यधेनाथ जलौकसा वा। त्रिफलादितैलम् । निम्बाम्बुसिक्तैः शिरसि प्रलेपो त्रिफलाया रजो मांसी मार्कवोत्पलशारिवैः । पेयोऽश्ववोरससैन्धवाभ्याम् ।। ७५ ॥ | ससैन्धवैः पचेचैलमभ्यङ्गगादूक्षिकां जयेत् ।।८२॥

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