Book Title: Chakradutt
Author(s): Jagannathsharma Bajpayee Pandit
Publisher: Lakshmi Vyenkateshwar Steam Press

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Page 269
________________ ( २४२ ) चक्रदत्तः । स्नानम् । लोह मलामलकल्कैः सजवाकुसुमैर्नरः सदा स्नायी । पलितानीह न पश्यति गङ्गास्नायीव नरकाणि ॥ ११५ ॥ लोह कि, आंवला तथा जपापुष्पके कल्ककी मालिश कर जलसे स्नान करनेसे गंगास्नानसे पातकों के समान बालोंकी सफेदी नष्ट हो जाती है ॥ ११५ ॥ [ क्षुद्ररोगा लोहपात्रे ततः पूतं संशुद्धमुपयोजयेत् । पाने नस्यक्रियायां च शिरोऽभ्यंगे तथैव च ॥ १२५ ॥ एतचक्षुष्यमायुष्यं शिरसः सर्वरोगनुत् । महानीलमिति ख्यातं पलितन्नमनुत्तमम् ॥ १२६ ॥ निम्बबीजयोगः | निम्बस्य बीजानि हि भावितानि भृङ्गस्य तोयेन तथाशनस्य । तैलं तु तेषां विनिहन्ति नस्याद् दुग्धान्नभोक्तः पलितं समूलम् ॥ ११६ ॥ नीमके बीजोंको भांगरेके क्वाथ तथा विजैसारके क्वाथकी भावना देनेके अनन्तर निकाले गये तैलका नस्य लेनेसे तथा दूध भातका पथ्य लेनेसे सफेद बाल काले हो जाते हैं ॥ ११६ ॥ निम्बतैलयोगः । निम्बस्य तैलं प्रकृतिस्थमेव नये निषिक्त विधिना यथावत् । मासेन गोक्षीरभुजो नरस्य जराभूतं पलितं निहन्ति ॥ नीमके तैलका एक मासतक नस्य लेने तथा गोदुग्धका पथ्य लेनेसे सफेद बाल काले होते हैं ॥ ११७ ॥ ११७ ॥ सूर्यमुखीकी जड़, काले कटसैलाकी जड़, तुलसीकी पत्ती, काले सनके फल, भांगरा, मकोय, मौरेठी, तथा देवदारु प्रत्येक दश पल, छोटी पीपल, त्रिफला रसौत, पुण्डरिया, मजीठ, लोध, काला अगर, नीलोफर, आमकी गुठली, काला कीचड़, कमल, लाल चन्दन, नील, भिलावेकी गुठली, काशीस, वेला, बकुची, विजेसार, तीक्ष्ण लौहभस्म, काला मैनफल, काली चीत, अर्जुन व खम्भारके फूल तथा आम व जामुनके फल, फुलकी गुठली प्रत्येक ५ पल पीसकर एक आढक बहेड़ेका तैल, ४ आढक आंवले का रस मिलाकर पकाना चाहिये । अथवा सूर्य की किरणोंसे रसको सुखा लेना चाहिये । फिर लोहे के बर्तनमें छानकर पीने, नस्य तथा | मालिशसे उपयोग करना चाहिये । यह नेत्रोंके लिये हितकर, | आयुको बढानेवाला तथा शिरके सब रोगों को नष्ट करता है । इसे " महानील" तैल कहते हैं । यह पलितरोगको नष्ट करता | है ॥ ११९-१२६ ॥ पलितघ्नं घृतम् । भृङ्गराजरसे पक्कं शिखिपित्तेन कल्कितम् । घृतं नस्येन पलितं हन्यात्सप्ताहयोगतः ॥ १२७ ॥ भांगरे के रस में मयूरके पित्तके कल्कको छोड़कर सिद्ध घृतका नस्य लेनेसे ७ दिनमें पलित नष्ट होता है ॥ १२७ ॥ क्षीरादितैलम् । क्षीरात्समार्कवरसाद् द्विप्रस्थे मधुकात्पले । तैलस्य कुडवं पक्कं तन्नस्यं पलितापहम् ॥ ११८ ॥ दूध व भांगरेका रस दोनों मिलकर २ प्रस्थ, मौरठी २ पल, तैल १ कुड़व पकाकर नस्य लेनेसे पलित नष्ट होता है ॥ ११८ ॥ महानीलं तैलम् । आदित्यवल्लिमूलानि कृष्णशैरीयकस्य च । सुरसस्य च पत्राणि फलं कृष्णशणस्य च ॥ ११९ ॥ मार्कवं काकमाची च मधुकं देवदारु च । पृथग्दशपलांशानि पिप्पली त्रिफलाञ्जनम् ॥१२०॥ पौण्डरीकं मञ्जिष्ठा लोध्रं कृष्णागुरूत्पलम् । आम्रास्थिकर्दमः कृष्णो मृणाली रक्तचन्दनम् १२२ ॥ हैं ॥ १२८ ॥ १२९ ॥ वृषणकच्छ्वादिचिकित्सा । भल्लातकास्थीनि कासीसं मदयन्तिका । सोमराज्यशनः शस्त्रं कृष्णो पिण्डीतचित्रको १२२ पुष्पाण्यर्जुन काश्मर्योश्चाम्रजम्बूफलानि च । पृथक्पञ्चपलेर्भागैः सुपिष्टैराढकं पचेत् ॥ १२३ ॥ भीतकस्य तैलस्य धात्रीरसचतुर्गुणम् । कुर्यादादित्यपाकं वा यावच्छुष्को भवेद्रसः॥ १२४ ॥ ] होती है ॥ १३० ॥ कासीसं रोचनातुल्यं हरितालं रसाञ्जनम् । अम्लपिष्टेः प्रलेपोऽयं वृबकच्छ्वहिपूतयोः ॥१३०॥ काशीस, गोरोचन, हरिताल तथा रसौतको समान भाग ले काञ्जी में पीसकर लेप करनेसे वृषणकच्छु तथा अहिपूतना नष्ट | शेलुकतैलम् । काञ्जिकपिष्टशेलु फलमज्ज्ञि सच्छिद्रलौहगे । दर्कतापात्पतति तैलं तन्नस्यम्रक्षणात् ॥ १२८ ॥ केशा नीलालिसङ्काशाः सद्यः स्निग्धा भवन्ति च । नयनश्रवणग्रीवादन्तरोगांश्च हन्त्यदः ।। १२९ ॥ काजी में पीसी लसोढेके फलकी मज्जाको छिद्रयुक्त लोहपात्र में भरकर सूर्य की किरणोंसे तपकर जो तैल नीचे गिरता है, उसके नस्य तथा मालिशसे बाल नील भँवरोंके सदृश काले तथा चिकने होते हैं तथा नेत्र, कान, गर्दन और दन्तों के रोग नष्ट होते |

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