Book Title: Chakradutt
Author(s): Jagannathsharma Bajpayee Pandit
Publisher: Lakshmi Vyenkateshwar Steam Press
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धिकारः भाषाटीकोपेतः।
न्पटोलादिघृतम् ।
पित्तजचिकित्सा। पटोलपत्रत्रिफलारसाजनविपाचितम् ।
वेधं शिराणां वमनं विरक पीतं घृतं निहन्त्याशु कृच्छ्रामप्यहिपूतनाम् ॥१३१
तिक्तस्य पानं रसभोजनं च। परवलकी पत्ती, त्रिफला तथा रसोतसे सिद्ध घृतको पीनेसे| शीतान्प्रलेपान्परिषेचनं च भहिपूतना नष्ट होती है ॥ १३१॥
पित्तोपसृष्टेष्वधरेषु कुर्यात् ।। ३ ॥ शूकरदंष्ट्रकचिकित्सा।
पित्तरक्ताभिघातोत्थाजलौकाभिरुपाचरेत् । रजनीमार्कवमूलं पिष्टं शीतेन वारिणा तुल्यम्।
पित्तविद्रधिवञ्चापि क्रियां कुर्यादशेषतः ॥ ४ ॥ हन्ति विसर्प लेपाद्वराहदशनाह्वयं घोरम् ।। १३२॥ पित्तयुक्त ओष्ठोंमें शिराव्यध, वमन, विरेचन, तिक्त रस हल्दी व भांगरेकी जड़ दोनों समान भाग ले ठण्डे जलमें सेवन, मांसरसका भाजन, शीतल लेप तथा सिञ्चन करना पीसकर लेप करनेसे घोर शंकरदंष्टक रोग नष्ट होता चाहिये । और पित्तरक्त तथा अभिघातजन्य ओष्ठरोगमें है॥ १३२॥
जोंक लगाकर तथा पित्तविद्रधिके समान चिकित्सा करनी
चाहिये ॥३॥४॥ पाददाहचिकित्सा। नागकेशरचूर्ण वा शतधौतेन सर्पिषा ।
कफजचिकित्सा। पिष्ट्वा लेपो विधातव्यो दाहे हर्षे च पादयोः॥१३३ शिरोविरेचनं धूमः स्वेदः कवलधारणम् । नागकेशरके चूर्णको१०. बार धोये हुए धीमें मिलाकर पाद- हृतरक्त प्रयोक्तव्यमोष्ठकोपे कफात्मके ॥५॥ दाह तथा पादहर्षमें लगाना चाहिये ॥ १३३॥
त्रिकटुः सर्जिकाक्षारः क्षारश्च यावशूकजः। . इति क्षुद्ररोगाधिकारः समाप्तः।
क्षौद्रयुक्तं विधातव्यमेतच्च प्रतिसारणम् ॥ ६ ॥
कफात्मक ओष्ठरोगमें रक्त निकालनेके अनन्तर शिरोविरेचन. अथ मुखरोगाधिकारः। धुम, स्वेद, कवल धारण करने चाहियें। तथा त्रिकटु,
सज्जीखार व जवाखारके चूर्णको शहद मिलाकर लगाना
चाहिये ॥५॥६॥ वातजौष्ठरोगचिकित्सा।
मेदोजचिकित्सा। ओष्ठप्रकोपे वातोत्थे शाल्वणेनोपनाहनम् ।
मेदोजे स्वदिते भिन्ने शोधिते ज्वलनो हितः॥ मस्तिष्के चैव नस्ये च तैलं वातहरैः शृतम् । ।
प्रियङ्गुत्रिफलालोधं सक्षौद्रं प्रतिसारणम् ।। स्वेदोऽभ्यङ्गः स्नेहपानं रसायनमिहेष्यते ॥१॥ हितं च त्रिफलाचूर्ण मधुयुक्तं प्रलेपनम् ॥७॥
वातज ओष्ठकोपमें शाल्वणस्वेदकी ओषधियोंसे पुल्टिस सर्जरसकनकगैरिकधन्याकघृततैलसिन्धुसंयुक्तम् । बान्धनी चाहिये । तथा वातनाशक औषधियोंसे सिद्ध तैलको| सिद्धं सिक्थकमधरे स्फुटितोच्चटितं व्रणं हरति॥८॥ शिरमें लगाना तथा नस्य लेना चाहिये । और पसीना निका
मेदोज ओष्ठरोगमें स्वेदन भेदन तथा शोधन अग्नि ताप करना लना, मालिश करना, नेहपान तथा रसायन सेवन इसमें हितकर
चाहिये और प्रियंगु त्रिफला व लोधके चूर्णको शहदके साथ
लगाना चाहिये । अथबा त्रिफलाके चूर्णको शहदमें मिलाकर श्रीवेष्टकादिलेपः।
लगाना चाहिये । तथा राल, सुनहरा गेरू, धनियां, घी, तेल, श्रीवेष्टकं सर्जरसं गुग्गुलुं सुरदारु च।
सेंधानमक तथा मोम इनका यथाविधि पाक कर लगानेसे यष्टीमधुकचूर्ण च विदध्यात्प्रतिसारणम् ॥२॥
ओष्ठका फटना व पपड़ी पड़ना नष्ट होता है ॥ ७॥८॥ गन्धाविरोजा, राल, गुग्गुल, देवदारु और मौरेठीक चूर्णको
शीतादचिकित्सा। ओठापर लगाना चाहिये ॥२॥
शीतादे हृतरक्ते तु तोये नागरसर्षपान् । १“ सदाहो रकपर्यन्तस्त्वक्पाकी तीनवेदनः । कण्डूमाव- निःकाध्य त्रिफलां चापि कुर्याद्गण्डूषधारणम् ॥९॥ रकारी च स स्थाच्छूकरदंष्ट्रकः "॥
प्रियङ्गवश्व मुस्ता च त्रिफला च प्रलेपनम्॥१०॥

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