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धिकारः]
भाषाटीकोपेतः।
(२२७)
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काला भांगरा इनसे घोट घोट कर अनेक पुट उस समयतक भोज्यं यथेष्टमिष्टं च वारि भक्ताम्लकालिकम्॥५०॥ देना चाहिये, जबतक निश्चन्द्र न हो जाय । इस प्रकार अभ्रक हन्त्यम्लपित्तं विविधं शूलं च परिणामजम् । कार्ययोग्य होता है । तथा स्वर्णमाक्षिकको शालिञ्चशाकके
पाण्डुरोगं च गुल्मं च शोथोदरगुदामयान्॥ ५१॥ रसके साथ पीसकर कान्त लौहपर लेप कर उसे त्रिफलाके
यक्ष्माणं पञ्च कासांश्च मन्दाग्नित्वमरोचकम् । काथमें बुझाना चाहिये । फिर उस कान्तलौहकी श्वेत लोध्र, हस्तिकर्ण, पलाश, त्रिफला, विधारा, मानकन्द, अस्थिसंहार,
प्लीहानं श्वासमानाहमामवातं सुदारुणम् । अदरख, दशमूल, मुण्डी तथा मुशलीके रसमें अनेक बार पुट
गुटी क्षुधावती सेयं विख्याता रोगनाशिनी ॥५२॥ दनेसे वह शुद्ध हो जाता है । इसी प्रकार सफेद सूर्यावर्त,
अभ्रक ८ तो०, लौह ४ तो०, मंडूर २ तो० सबको खरलमें सफेद खरेटी, अपामार्ग, चौराई, पुनर्नवा तथा गुर्चका कल्क
छोड़कर मण्डूकपर्णी (ब्राह्मीभेद ), गजपीपल, मुशलीके रस नाच ऊपर आधा आधा रखकर ३ दिन तक गोमत्रा तथा शतावरी, भांगरा, काला भांगरा तथा मसकि रस तथा साथ मण्डूर अन्तर्बाष्प पकाना चाहिये और जलने न| त्रिफला व नागरमाथाक स्वरससे स्थालीपाक विधिसे पकाकर पावे । फिर उसका चूर्ण कर लेना चाहिये । इस प्रकार
प्रत्येक पारा व गन्धक २ तोले की कजली कर मिलाना चाहिये। मण्ड्र शुद्ध हो जाता है । तथा जयंती, विधारा, अदरख,
फिर बच, चव्य, अजवायन, दोनों जीरे, सौंफ, त्रिकटु, नागरऔर मकोयके रससे पारद शुद्ध होता है। आंवलासार गन्धकके
मोथा, वायविडंग, पिपरामूल, लटजीरा, निसोथ, चीत, दन्ती, टुकड़ कर भांगरेके रसमें लोहेके बर्तनमें ३ दिन तक धूपमें
| काला सूर्यावर्त, भांगरा, मानकन्द, खण्डकर्ण ( शकरकन्द ) सुखानेके अनन्तर आनिमें तपाकर कपड़ेसे भांगरेके रसमें ही
नीलोफर, काला भांगरा तथा काकड़ासिंही प्रत्येक २ तोला ले छानकर सुखा लेनेसे शुद्ध हो जाता है । इस प्रकार समस्त वस्तु
कूट कपड़छान चूर्ण कर त्रिफला प्रत्येक ६ तोला चूर्ण कर सब ओंका शोधन कर क्षुधावती गुटीमें छोड़ना चाहिये ॥२८-३९॥
| चीजोंको लोहपात्रमें अदरखके रसकी भावना दे, दण्डसे घोटकर
तीन दिन धूपमें रखना चाहिये। फिर अदरखके ही रससे सिलक्षुधावती गुटी।
पर पीसकर बेरकी गुठलाके बराबर गोली बनानी चाहिये । सूख
जानेपर रखना चाहिये । इसे प्रातःकाल भोजनके पहिले ३ गोलि. गगनाद् द्विपलं चूर्ण लौहस्य पलमात्रकम् । योंकी मात्रामें काजीके साथ सेवन करना चाहिये । मीठे पदार्थ, लौहकिट्टपलार्ध च सर्वमेकत्र संस्थितम् ।। ४०॥ | दूध तथा नरियलका जल नहीं खाना चाहिये । शेष पदार्थ मण्डूकपर्णीवशिरतालमूलीरसैः पुनः। | यथेष्ट खाना चाहिये । विशेषतः काजी और भात तथा जलका वरीभृङ्गकेशराजकालमारिषजैरथ ॥४१॥
सेवन करना चाहिये । यह "क्षुधावती गुटी" अम्लपित्त, परित्रिफलाभद्रमुस्ताभिः स्थालीपाकाद्विपाचितम् ।।
णामशूल, पाण्डुरोग, गुल्म, शोथ, उदररोग, अर्श, यक्ष्मा, पांचों
| कास, मन्दाग्नि, असाचे, प्लीहा, श्वास, अफारा, आमवात इन रसगन्धकयोः कर्षों प्रत्येकं प्राह्यमेकतः॥४२॥
सब रोगोंको नष्ट करती है ॥ ४०-५२॥ तन्मर्दनाच्छिलाखल्वे यत्नतः कज्जलीकृतम्। वचा चव्यं यमानी च जीरके शतपुष्पिका ॥४३॥ जीरकाद्यं घृतम् । व्योषं मुस्तं विडङ्गं च प्रन्थिकं खरमञ्जरी।
पिष्टवाजाजी सधन्याकां प्रस्थं विपाचयेत् । त्रिवृता चित्रको दन्ती सूर्यावर्तोऽसितस्तथा ॥४४॥ कफपित्तारुचिहरं मन्दानलवमि जयेत् ॥ ५३ ॥ भंगमाणककन्दश्च खण्डकर्णक एव च।
जीरा व धनियांके कल्कमें १ प्रस्थ घृत पकाना चाहिये । यह दण्डोत्पलाकेशराजकालाकर्कटकोऽपि च ॥ ४५ ॥ कफपित्त, अरुचि, मन्दाग्नि व वमनको नष्ट करता है ॥५३॥ एषामर्धपलं प्राचं पटघृष्टं सुचूर्णितम् ।
पटोलशुण्ठीघृतम् । प्रत्येकं त्रिफलायाश्च पलाधै पलमेव च ॥४६॥ एतत्सर्व समालोडथ लोहपात्रे तु भावयेत् ।।
पटोलशुण्ठ्योः कल्काभ्यां केवलं कुलकेन वा । आतपे दण्डसंघृष्टमार्द्रकस्य रसैत्रिधा ॥४७॥
घृतप्रस्थं विपक्तव्यं कफपित्तहरं परम् ॥ ५४॥
परवल व सोंठके कल्क अथवा केवल परवलके कल्कसे सिद्ध तद्रसेन शिलापिष्टां गुडिकां कारयेद्भिषक् । .
घृत कफपित्तको नष्ट करता है ॥ ५४ ॥ बदरास्थिनिभां शुष्का सुनिगुप्तां निधापयेत् ॥४८॥ सत्प्रातर्भोजनादौ तु सेवितं गुडिकात्रयम्।
पिप्पलीघृतम् । अम्लोदकानुपानं च हितं मधुरवर्जितम् ॥४९॥ पिप्पलीकाथकल्केन घृतं सिद्धं मधुप्लुतम् । दुग्धं च नारिकेलं च वर्जनीयं विशेषतः। पिबेत्तत्प्रातरुत्थाय अम्लपित्तनिवृत्तये ॥५५ ।।