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विकारः]
भाषाटीकोपेतः।
चाहिये । इसी प्रसाद करना चाह कर देवदारु
मधुरौषधसिद्धेन सर्पिषा शमयेद् व्रणान् । पाददारीमें तलशोधनी शिराका व्यध करना चाहिये । रक्तावसेकैर्बहुभिः स्वेदनैरपतर्पणैः ॥ ४॥
तथा पैरोंका स्नेहन, स्वेदन कर मोम, चर्बी, मज्जा, घी व जयद्विदारिका लेपैः शिग्रुदेवदुमोद्भवैः।
क्षारका लेप करना चाहिये । तथा राल व सेंधानमकके चूर्णको पनसिकां कच्छपिकामनेन विधिना भिषक् ॥५॥
शहद, घी तथा कडए तैलमें मिलाकर पैरोंमें लगाना हितकर
है ॥ १०॥ ११ ॥ साधयेत्कठिनानन्याञ्शोथान्दोषसमुद्भवान् ।। अन्त्रालजी कच्छपिकां तथा पाषाणगर्दभम् ॥६॥ उपोदिकादिक्षारतैलम् । सुरदारुशिलाकुष्ठः स्वेदयित्वा प्रलेपयेत् ।
उपोदिकासर्षपनिम्बमोचकफमारुतशोथनो लेपः पाषाणगर्दभे ॥७॥
कर्कारुकैर्वारुकभस्मतोये। कबी अजगल्लिकाको जोंक लगाकर शान्त करना चाहिये। तैलं विपक्कं लवणांशयुक्तं तथा शुक्ति व फिटकरीके क्षारकल्कको बार बार लगाना चाहिये। नवीन कण्टकारकि कांटोंसे छेद देनेसे अजगल्लिका पककर शान्त
तत्पाददारी विनिहन्ति लेपात् ॥ १२॥ हो जाती है। इसमें कोई सन्देह नहीं। तथा कठिन अजगलि पोय, सरसों, नीमकी पत्ती, सेमर तथा ककड़ी व खीरा इन काका क्षारयोगसे बहाना चाहिये । अनुशयीको श्लेष्मावत- आषधियोंको यथाविधि जलाकर भस्म बना ले। इस भस्मके धिकी विधिसे जीतना चाहिये । तथा विवृता, इन्द्रवृद्धा, गर्दभी,
जलमें पकाया गया तैल नमक मिलाकर लेप करनेसे पाददारीको जालगर्दभ, इरिवेल्लिका और गन्धनामिकाको पित्तविसर्पके | समान जीतना चाहिये । व्रणोंको मीठी ओषधियोंसे सिद्ध घीसे
अलसकचिकित्सा। जीतना चाहिये । तथा रक्तावसेक, स्वेदन तथा अपतर्पणसे विदारिकाको जीतना चाहिये। तथा साहिंजन व देवदारुका लेप लगाना अलसेऽम्लैश्चिरं सिक्ती चरणी परिलेपयेत् । चाहिये । इसी प्रकार पनसिका और कच्छपिका तथा दोषजन्य पटोलारिष्टकाशीसत्रिफलाभिर्मुहुर्मुहुः ॥ १३ ॥ अन्य शोथोंको सिद्ध करना चाहिये । तथा अन्त्रालजी, कच्छ- करजबीजं रजनी काशीसं मधुकं मधु । पिका तथा पाषाणगर्दभमें स्वेदन कर देवदारु, मैनशिल और
रोचना हरितालं च लेपोऽयमलसे हितः ॥ १४ ॥ कूठका लेप करना चाहिये । पाषाणगर्दभमें कफ व वायुशोथ
लाक्षाभयारसो लेपः कार्य वा रक्तमोक्षणम् । नाशक लेप लगाना चाहिये ॥ १-७॥
जातीपत्रं च संमद्य दद्यादलसके भिषक् ।। १५ ।। वल्मीकचिकित्सा।
बृहतीरससिद्धेन तैलेनाभ्यज्य बुद्धिमान् । शस्त्रेणोत्कृत्य वल्मीकं क्षाराग्निभ्यां प्रसाधयेत् । ।
शिलारोचनकाशीसचूर्णैर्वा प्रतिसारयेत् ॥ १६ ॥ मनःशिलालभल्लातसक्ष्मलागरुचन्दनैः ॥ | अलसकमें पैरोंको काजीसे तर कर परवल. नीम. काशीस जातीपल्लवकल्कैश्च निम्बतैलं विपाचयेत् । व त्रिफलाके कल्कका बारबार लेप करे । अथवा कजाके बीज, वल्मीकं नाशयेत्तद्धि बहुच्छिद्रं बहस्वनम ॥९॥हल्दी, काशीस, मौरेठी, शहद, गोरोचन व हरितालका लेप
| लगाना चाहिये । अथवा लाख, हर्र और रासनका लेप करना वल्मीकको शस्त्रसे काटकर क्षार तथा अग्निका प्रयोग करना चाहिये । अथवा रक्तमोक्षण करना चाहिये । अथवा चमेलीके चाहिये। तथा मनशिल, हरताल, भिलावा, छोटी इलायची,अग़र पत्तोंको पीसकर अलसकमें लगाना चाहिये । अथवा बड़ी कटेरीके चन्दन तथा चमेलीके पत्तोंके कल्कसे नीमका तेल सिद्ध करना रससे सिद्ध तैलसे मालिश कर मनशिल, गोरोचन व काशीसके चाहिये। यह तेल बहुत छिद्र तथा बहुत शब्दयुक्त बल्मीक चूर्णको उरांवे ॥१३-१६॥ रोगको नष्ट करता है ॥ ८॥९॥
कदरचिपचिकित्सा। पाददारीचिकित्सा।
दहेत्कदरमुद्धृत्य तैलेन दहनेन वा। पाददारीषु च शिरां व्यधयेत्तलशोधिनीम्। । चिप्पमुष्णाम्बुना स्विन्नमुत्कृत्याभ्यज्य तं व्रणम्॥१७ . स्नेहस्वेदोपपन्नी तु पादौ चालेपयेन्मुहुः ॥१०॥ दत्त्वा सर्जरसं चूर्ण बद्ध्वा व्रणवदाचेत् । मधूच्छिष्टवसामजाघृतक्षारैर्विमिश्रितैः। स्वरसेन हरिद्रायाः पात्रे कृष्णायसेऽभयाम् ॥१८॥ सर्जाख्यसिन्धूद्भवयोश्चूर्ण मधुघृताप्लुतम्। । घृष्ट्वा तज्जेन कल्केन लिम्पचिप्पं पुनः पुनः । निर्मध्य कटुतैलाक हितं पादप्रमार्जनम् ॥ ११॥ | चिप्पे सटकणास्फोतासूललेपो नखपदः ॥ १९ ॥
वायुशोथ