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धिकारः]
भाषार्टीकोपेतः।
(१८३)
प्लीहगुल्मोदराध्मानपांडुरोगारुचिज्वरान् । । यकृत्प्लीहोदरं चैव प्लीहशूलं यकृत्तथा। बस्तिहृत्पार्श्वकटयूरुशूलोदावर्तपीनसान् ॥२८॥ कुक्षिशुलं च हृच्छूल पार्श्वशूलमरोचकम् ॥ ४९ ॥ हन्यात्पीतं तदर्शोघ्नं शोथन्नं वह्रिदीपनम् । . विबन्धशूलं शमयेत्पाण्डुरोगं सकामलम् । बलवर्णकरं चापि भस्मकं च नियच्छति॥२९॥ छर्घतीसारशमनं तन्द्रावरविनाशनम् ।
महारोहितकं नाम प्लीहघ्नं तु विशेषतः ॥४०॥ चाहिये तथा इसमें काजी ३ सेर १३ छ. १ तो० दहीका रोहीतककी छाल ५ सेर, बेरकी ३ सेर १६ तोला सब २ तोड़ ६ सेर ३२ तोला तथा पञ्चकोल, तालीशपत्र, जवाखार, द्रोण (द्रवद्वैगुण्यात् ४ द्रोण) जलमें पकाना चाहिये, चतुर्थांश सेंधानमक, दोनों जीरे, हल्दी, दारुहल्दी, व काली मिर्चका
| शेष रहनेपर उतार छानकर घृत १ प्रस्थ, बकरीका दूध ४ कल्क छोड़कर पकाना चाहिये । यह घृत प्लीहा, गुल्म, उदर, प्रस्थ तथा त्रिकटु, त्रिफला, हींग, अजवायन, तुम्बुरु, आध्मान, पाण्डुरोग, अरुचि ज्वर, बस्ति, हृदय, पसलियों, विड़नमक, जीरा, कालानमक, अनारदाना, देवदारु, पुनर्नवा, कमर और जधोंका शुल, उदावर्त, पीनस, अर्श और शोथको इन्द्रायण, जवाखार, पोहकर मूल, वायविडङ्ग, चीतकी जड़, नष्ट करता, बल और वर्णको उत्तम बनाता तथा अग्निको इतना हाऊबेर, चव्य, बच प्रत्येक १ तोलाका कल्क छोड़कर पकाना दीप्त करता है कि भस्मक हो जाता है॥२६-२९ ॥
चाहिये । इसकी मात्रा व्याधि, बल आदिका निश्चयकर ३ पल
तक देनी चाहिये । मांस रस, यूष अथवा दूधके साथ भोजन रोहीतकघृतम् ।
करना चाहिये । यह घृत अनेक रोगोंको नष्ट करता है। रोहीतकत्वचः श्रेष्ठाः पलानां पञ्चविंशतिः। यथा यकृत् , प्लीहा, उदर, प्लीहशूल, यकृच्छूल पेटके कोलद्विप्रस्थसंयुक्तं कषायमुपकल्पयेत् ॥ ३०॥ | दर्द, हृदयके दर्द, पसलियोंके दर्द, अरुचि, मलकी रुकावट, पलिकः पञ्चकोलेश्च तत्सर्वश्चापि तुल्यया।
पाण्डुरोग, कामला, वमन, अतीसार, तथा तन्द्रायुक्त ज्वरको रोहितकत्वचा पिष्टैघृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ ३१॥
| नष्ट करता है । विशेषकर प्लीहाको नष्ट करता है॥ ३३-४० ॥ प्लीहाभिवृद्धिं शमयेदेतदाशु प्रयोजितम् ।
इति प्लीहाधिकारः समाप्तः। तथा गुल्मज्वरश्वासाक्रिमिपाण्डुत्वकामलाः ॥ ३२॥
अथ शोथाधिकारः। रूहेड़ेकी छाल १। सेर तथा बेर १ सेर ९ छ० ३ तो० का क्वाथ बनाना चाहिये । इस क्वाथमें पञ्चकोल प्रत्येक १ पल, रुहेड़ेकी छाल ५ पलका कल्क मिलाकर घी १ ( द्रवर्तण्यात् |
वातशोथचिकित्सा। १२८ तोला) मिलाकर सिद्ध करना चाहिये । यह घी प्लीहाको शुण्ठीपुनर्नवैरण्डपञ्चमूलशृतं जलम् । शीघ्र नष्ट करता तथा गुल्म, ज्वर, श्वास, क्रिमि, पाण्डु और
वातिके श्वयथी शस्तं पानाहारपरिग्रहे । कामलाको भी शान्त करता है ॥ ३०-३२॥
दशमूलं सर्वथा च शस्तं वाते विशेषतः ॥१॥
__ सोंठ, पुनर्नवा, एरण्डकी छाल तथा पञ्चमुलसे सिद्ध महारोहीतकं घृतम् ।
जल वातजन्य शोथमें पीने तथा आहार बनानेके लिये रोहीतकात्पलशतं क्षोदयद्वदराढकम् । | हितकर है । तथा दशमूल सभी शोथोंमें हितकर है, वातमें साधयित्वा जलद्रोणे चतुर्भागावशोषिते ॥३३ ॥ विशेष हितकर है * ॥१॥ घृतप्रस्थं समावाप्य छागक्षीरचतुर्गुणम्।
पित्तजशोथचिकित्सा। तस्मिन्दद्यादिमान्कल्कान्सास्तानक्षसम्मितान् ३४/ क्षीराशनः पित्तकृतेऽथ शोथे व्योषं फलत्रिकं हिगु यमानीं तुम्बुरुं बिडम् । | त्रिवृद्गुडूचीत्रिफलाकषायम् । अजाजी कृष्णलवणं दाडिमं देवदारु च ॥ ३५॥ पिबेगवां मूत्रविमिश्रितं वा पुनर्नवां विशालां च यवक्षारं सपौष्करम्।
फलत्रिकाच्चूमथाक्षमात्रम् ॥२॥ विडङ्गं चित्रकं चैव हपुषां चविकां वचाम् ॥३६॥ -
* पृश्निपादिकषायः “ पृश्निपींघनोदीच्यशुण्ठीसिद्ध एतैघृतं विपकं तु स्थापयेद्भाजने दृढे ।
तु पैत्तिके ।" पैत्तिकशोथमें पिठवन, मोथा, सुगन्धवाला तथा पाययेत्रिपला मात्रां व्याधि बलमपेक्ष्य च ॥३७॥ सोंठ इन औषधियोंसे सिद्ध क्वाथका सेवन करना चाहिये। रसकेनाथ यूषेण पयसा वापि भोजयत्। (यहांपर यह कषाय कई प्रतियों में पाया जाता है, कईमें नहीं। उपयुक्तं घृतश्चैतद्वथाधीन्हन्यादिमान्बहून् ॥ ३८॥ अतः टिप्पणीरूपमें लिखा गया है)