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(१८८)
चक्रदत्तः।
[वृद्धय
अथ वृद्धयधिकारः।
व्यत्यासाद्वा शिरां विध्यदन्त्रवृद्धिनिवृत्तये। अंगुष्ठमध्ये त्वक् छित्त्वा दहेदङ्गविपर्यये ॥९॥
अण्डकोषोंके नीचे सीवनीके बगलमें व्रीहिमुखशस्त्रसे शिरावातवृद्धिचिकित्सा ।
व्यध करना चाहिये । तथा शंखके ऊपर कर्णके समीप सीवनको
छोड़कर दाह करना चाहिये । अन्त्रवृद्धि दूर करनेके लिये जिस गुग्गुलु रुबुतैलं वा गोमूत्रेण पिबेन्नरः। जिस अण्डमें वृद्धि है, उसके दूसरी ओरके अँगूठेमें शिराव्यध वातवृद्धिं निहन्त्याशु चिरकालानुबन्धिनीम् ॥१॥ करना चाहिये । अथवा चर्म काटकर दूसरी ही ओर जला देना सक्षीरं वा पिबेत्तैलं मासमेरण्डसम्भवम् । चाहिये ॥ ८॥९॥ पुनर्ववायास्तैलं वा तैलं नारायणं तथा ॥ २॥
रानादिक्वाथः। पाने बस्तौ रुबोस्तैलं पेय वा दशकाम्भसा ।।
रास्नायष्टयमृतैरण्डबलागोक्षुरसाधितः। मनुष्य गुग्गुलु अथवा एरण्डतैलको गोमूत्रके साथ पीवे, इससे काथोऽन्त्रवृद्धि हन्त्याशु रुबुतैलेन मिश्रितः ॥१०॥ पुरानी वातवृद्धि नष्ट होती है । अथवा दूधके साथ एक मासतक रासन, मौरेठी, गुर्च, एरण्डकी छाल, खरेटी तथा गोखरूसे एरण्डतैल अथवा पुनर्नवातैल अथवा नारायण तैल पीवे । अथवा सिद्ध क्वाथ एरण्डतैलके साथ अन्त्रवृद्धिको शीघ्रही नष्ट करता दशमूलके क्वाथके साथ एरण्डतलको पीवे और बस्तिका प्रयोग है॥१०॥ करे ॥१॥२॥
बलाक्षीरम् । पित्तरक्तवृद्धिचिकित्सा।
तैलमेरण्डज पीत्वा बलासिद्धपयोऽन्वितम् । चन्दनं मधुकं पद्ममुशीरं नीलमुत्पलम् ॥३॥ आध्मानशूलोपचितामन्त्रवृद्धि जयेन्नरः॥ ११ ॥ क्षीरपिष्टः प्रदेहः स्यादाहशोथरुजापहः ।
खरेटीके सिद्ध दूधके साथ एरण्डका तैल पीनेसे पेटकी गुडपञ्चवल्कलकल्कन सघृतेन प्रलेपनम् ॥ ४॥ गुडाहट तथा शूलयुक्त अन्त्राद्ध नष्ट होती है ॥ ११॥ सर्व पित्तहरं कार्य रक्तजे रक्तमोक्षणम् ।
हरीतकीयोगौ। चन्दन, मौरेठी, खश, कमलके फूल तथा नीलोफरको दूधमें | पीसकर लेप करनेसे दाह, शोथ और पीड़ा नष्ट होती है ।।
हरीतकी मूत्रसिद्धां सतैलां लवणान्विताम् । अथवा पञ्चवल्कलके कल्कको घीके साथ लेप करना चाहिये। तथा
प्रातः प्रातश्च सेवेत कफवातामयापहाम् ॥ १२ ॥ रक्तजधृद्धिमें समस्त पित्तनाशक चिकित्सा तथा रक्तमोक्षण करना। गोमूत्रसिद्धा रुबुतैलभष्टा चाहिये ॥३॥४॥
हरीतकी सैन्धवसंप्रयुक्ताम् ।
खादेन्नरः कोष्णजलानुपानां श्लेष्ममेदोमूत्रजवृद्धिचिकित्सा ।।
_ निहन्ति वृद्धि चिरजां प्रवृद्धाम् ॥ १३ ॥ श्लेष्मवृद्धिं तूष्णवीर्यैर्मूत्रपिष्टैः प्रलेपयेत् ॥५॥ |
(१)हर्रको मूत्रमें पकाय एरण्ड तैल तथा नमक मिलाकर प्रतिपीतदारुकषायं च पिबेन्मूत्रेण संयुतम् । | दिन प्रातः सेवन करनेसे कफवातजवृद्धि नष्ट होती है। ऐसे ही स्विन्नं भेदः समुत्थं तु लेपयेत्सुरसादिना ॥ ६ ॥ (२) गोमूत्रमें पके एरण्डतैलमें भून सेंधानमक मिलाकर गरम शिरोविरेकद्रव्येर्वा सुखोष्णैर्मूत्रसंयुतैः। जलके साथ खानेसे पुरानी बढ़ी हुई अण्डवृद्धि नष्ट होती संस्वेद्य मूत्रप्रभवां वस्त्रपट्टेन वेष्टयेत् ॥७॥ है॥ १२ ॥१३॥ श्लेष्मवृद्विमें पासे हुए उष्णवीर्य पदाथोंसे लेप करना चाहिये। तथा दारुहल्दीका क्वाथ गोमूत्र मिलाकर पीना चाहिये । मेदाज
त्रिफलाक्वाथ:। बृद्धिका स्वेदन कर सुरसादिगणकी ओषधियोंका लेप करना त्रिफलाकाथगोमूत्रं पिबेत्प्रातरतन्द्रितः । चाहिये । मूत्रजवृद्धि में शिरोविरेचन द्रव्यों ( कैफरा नकछिकनी) कफवातोद्भवं हन्ति श्वयधुं वृषणोत्थितम् ॥ १४ ॥ आदि ) को मूत्रमें पीस गरम गरम लेप कर कपड़ेसे बांध देना त्रिफलाक्काथ व गोमूत्र प्रतिदिन प्रातःकाल पीनेसे कफवातज चाहिये ॥५-७॥
अण्डकोषोंका शोथ नष्ट होता है ॥ १४ ॥ शिराव्यधदाहविधिः।
सरलादिचूर्णम् । सीवन्याः पार्श्वतोऽधस्ताद्विध्येद् व्रीहिमुखेन वै। । सरलागुरुकुष्ठानि देवदारुमहौषधम् । शङ्खोपरि च कर्णान्ते त्यक्वा सीवनिमादहेत् ॥८॥ मूत्रारनालसंयुक्तं शोथनं कफवातनुत् ॥ १५ ॥