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धिकारः
भाषाटीकोपतः।
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प्रियंगूशीरनलदं जीवकाचं पुनर्नवा । मोथा, तगर, नीलोफर, तेजपात, कचूर, सम्भालूके बीज, दशमूल्यश्वगन्धे च नागपुष्पं रसाजनम् ॥२१८॥ छरीला, गन्धाबिरोजा, केवड़ाके फूल, त्रिफला, कौंचके बीज, कटुकाजातिपूगानां फलानि शल्लकारसम् ।।
शतावरी, सरल, कमलका केशर, प्रियंगु, खश, जटामांसी, भागांत्रिपलिकान्दत्त्वा शनैर्मेद्वग्निना पचेत् ॥ १२९
जीवकादिगणकी ओषधियां, पुनर्नवा, दशमूल, असगन्ध, नागविस्तीर्णे सुदृढे पात्रे पाक्यैषा तु प्रसारणी।
केशर, रसौतं, लताकस्तुरी, जायफल, सुपारी, राल प्रत्येक
ट्रॅव्य १२ तोले ले कल्क बना मिलाकर एक बड़े विशाल पात्रमें प्रयोगः षड्विधश्चात्र रोगार्तानां विधीयते ॥२२०॥ मन्द आंच से पकाना चाहिये । इसका प्रयोग ६ प्रकारसे होता है। अभ्यङ्गात्त्वग्गतं हन्ति पानात्कोष्ठगतं तथा। (१) मालिश करनेसे त्वचाके रोगोंको तथा (२) पीनसे कोष्ठगत भोजनात्सूक्ष्मनाडीस्थान्नस्यादूर्ध्वगतांस्तथा ॥२२१॥ बातको(३)भोजनके साथ सूक्ष्म नाड़ियोंमें प्रविष्ट वायुको,(४)नस्यसे पक्काशयगते बस्तिनिरूहः सार्घकायिके। ऊर्ध्वजत्रुगतवातको,(५)पक्काशयगत वायुको अनुवासन वस्ति तथा एतद्धि वडवाश्वानां किशोराणां यथामृतम् ॥२२२॥ (६)समस्त देहगत वायुको निरुहण बस्ति द्वारा नष्ट करता है। यह एतदेव मनुष्याणां कुञ्जराणां गवामपि।
घोड़ी, घोड़े, हाथी, गाय तथा मनुष्य सभीके लिये अमृततुल्य अनेनैव च तैलेन शुष्यमाणा महादुमाः॥२२३॥ गुणदायक है । इस तैलके सींचनेसे सूखे हुए वृक्ष फिर हरे होते सिक्ताः पनः प्ररोहन्ति भवन्ति फळझाविमो तथा अंकुर और फल तथा शाखाओंसे युक्त होते हैं । इस तैलसे वृद्धोऽप्यनेन तैलेन पुनश्च तरुणायते ॥ २२४ ॥
| वृद्ध भी बलवान् होता तथा जिस स्त्रीके सन्तान नहीं होती उसके
सन्तान होती है। शुक्रदोषसे जिसे सन्तान नहीं होती उसे भी न प्रसूते च या नारी सापि पीत्वा प्रसूयते । .
यह सन्तान देता है। हर प्रकारके वात, पित्त, कफ तथा अप्रजः पुरुषो यस्तु सोऽपि पीत्वा लभेत्सुतम् २२५ |
सन्निपातसे होनेवाले रोग इससे नष्ट होते हैं। इससे अन्धक और अशीतिं वातजारोगान्पत्तिकालष्मिकानपि । वृष्णिके वंशमें बहुत बालक उत्पन्न हुए। विष्णु भगवानका पूजन सन्निपातसमुत्थांश्च नाशयेत्क्षिप्रमेव तु ।। २२६॥ | कर इस तैलका प्रयोग करना चाहिये । इस क्वाथमें रासन एतेनान्धकवृष्णीनां कृतं पुंसवनं महत् । २॥ खेर और देवदारु २॥ सेर और छोड़ना चाहिये । यदि क्रत्वा विष्णोबेलिं चापि तैलमेतत्प्रयोजयेत् ॥२२७ मिलावां सहन न हो (किसीको भिलावां विशेष विकार करता काथे तुलार्ध रास्त्रायाः किलिमस्य च दीयते।।
है अतः ऐसे रोगीके लिये यदि बनाना हो ) तो भिलावांके भल्लातकासहत्वे तु तत्स्थाने रक्तचन्दनम् ॥२२८॥
स्थानमें लाल चन्दन छोड़ना चाहिये। तथा दालचीनी, तेजपात,
सोवाकी पत्ती, कूठ, चम्पा, गेरू, प्रन्थिपर्ण, जावित्री और त्वक्पत्रं पत्रमधुरीकुष्ठचम्पकगैरिकाः। प्रन्थिकोषो मरुबकमधिकत्वेन दीयते ॥ २२९ ॥
मरुकब भी छोड़ना चाहिये । कपूर और कस्तूरी सिरकेके साथ
मिलाकर छोड़ना चाहिये। द्रव्योंकी शुद्धि तथा पाककी विधि कर्पूरमददानं च शुक्तैर्गन्धोदकक्रिया।
आगे लिखे प्रसारणी तैलकी भांति करना चाहिये । (तैल द्रव्यशद्धिः पाकविधिभाविप्रसारणीसमः ॥२३०॥पाकमें गन्ध द्रव्य जब तैल परिपक्क होनेके समीप पहुँच
जाय तभी छोड़ना उत्तम होगा। क्योंकि पहिले छोड़नेसे गन्ध गन्धप्रसारणीका पञ्चांग १५ सेर, शतावरी ५ सेर, अस
उड़ जायगा)॥ २०९-२३०॥ गंध ५ सेर, केवड़ाका पञ्चांग ५ सेर, दशमूलकी प्रत्येक
ओषधि ५ सेर, खरेटीका पञ्चांग ५ सेर, पियावाँसा ५ सेर, __ महाराजप्रसारणीतैलम् । 'सब दुरकुचाकर ६४ मन जलमें पकाना चाहिये । २५ सेर ४८ तोला बाकी रहनेपर उतार छानकर क्वाथ अलग करना चाहिये।। शतत्रय प्रसारण्या द्वे च पीतसहाचरात् । फिर इसी क्वाथमें क्वाथसे दूनी काजी तथा १ आढक दहीका
अश्वगन्धैरण्डबला वरी रास्ना पुनर्नवा ॥२३१॥ तोड़, दूध १ आढ़क (अर्थात् ६ सेर ३२ तोला०) तथा| केतकी दशमूलं च पृथक्त्वक्पारिभद्रतः । सिरका. ईखका रस तथा बकरका मांस रस प्रत्येक १ आढक, प्रत्येकमेषां तु तुला तुलाधै किलिमात्तथा ॥२३२॥ तैल १ द्रोण अर्थात् २५ सेर ४८ तो० तथा भिलावां,
तुलाध स्याच्छिरीषाच्च लाक्षायाः पञ्चविंशतिः। तगर, सोंठ, छोटी पीपल, चीतकी अड़, कचूर,
पलानि लोध्राञ्च तथा सर्वमेकत्र साधयेत् ॥२३३ ।। वच, मालतीके फूल, गंधप्रसारणी, पिपरामूल, देवदारु, सौंफ, छोटी, इलायची, कलमी तज, सुगंधवाला,
जलपञ्चाटकशते सपादे तत्र शेषयेत् ।। केशर, कस्तूरी, मजीठ, शिलारस, नख, अगर, कपूर, कुंदरुगोंद,
द्रोणद्वयं काञ्जिकं च षड्विंशत्याढकोन्मितम् २३४ हल्दी, लवंग रोहिषधास, लालचन्दन, कंकोल, नाड़ी, नागरं- क्षीरदनोः पृथक्प्रस्थान्दश मस्त्वाढकं तथा।