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धिकारः 1
समझना चाहिये, अतः उसमें पुल्टिस बांधकर पकाना चाहिये, पक जानेपर व्रणके समान चीरना, साफ करना और घाव भरना चाहिये । यदि पक जाने पर दोष अपने आप ऊपरसे या नीचे से निकलने लग जायें, तो और उपद्रवोंकी रक्षा करते हुए १२ दिन तक उपेक्षा करनी चाहिये । इसके अनन्तर तिकरस युक्त शोधन द्रव्योंके साथ सिद्ध घृत शहदके साथ शोधनके लिये प्रयत्न करे ॥ १७-१९ ॥
भाषाटीकोपेतः ।
रोहिण्यादियोगः ।
रोहिणी कटुका निम्बं मधुकं त्रिफलात्वचः ॥२०॥ कर्षाशास्त्रायमाणा च पटोलत्रिवृतापले । द्विपलं च मसूराणां साध्यमष्टगुणेऽम्भसि ॥ २१ ॥ घृताच्छेषं घृतसमं सर्पिषश्च चतुष्पलम् । पिबेत्संमूच्छितं तेन गुल्मः शाम्यति पैत्तिकः ॥ २२॥ ज्वरस्तृष्णा च शूलं च भ्रममूर्च्छा रतिस्तथा ।
दीप्ताग्न्यादिषु स्नेहमात्रा ।
दीप्तायो महाकायाः स्नेहसात्म्याश्च ये नराः ॥ २३ गुल्मिनः सर्पदश्च विसर्पोपहताश्च ये । ज्येष्ठां मात्रां पिबेयुस्ते पलान्यष्टौ विशेषतः ॥ २४ ॥ दीप्ताभि, बड़े शरीरवाले, जिनको स्नेहका अधिक अभ्यास है वे, गुल्म व विसर्पवाले तथा सांपसे काटे हुए मनुष्य स्नेहकी बड़ी मात्रा अर्थात् ८ पल ( ३२ तोला ) पीवें ॥ २३ ॥ २४ ॥ कफजगुल्मजचिकित्सा ।
लङ्घनो लेखने वेदे कृतेऽग्नौ संप्रधुक्षिते ।
घृतं सक्षारकटुकं पातव्यं कफगुल्मिनाम् ॥ २५ ॥ कफगुल्मरोगियोंको लंघन, वमन, स्वदेन करनेके अनन्तर अनि दीप्त हो जानेपर क्षार और कटुद्रव्य मिश्रित घृत पिलाना चाहिये ॥ २५ ॥
वमनयोग्यता । मन्दोऽग्निर्वेदना मन्दा गुरुस्तिमितकोष्ठता । सोक्शा चारुचिर्यस्य स गुल्मी वमनोपगः ॥ २६ ॥
* यद्यपि यह मात्रा बहुत अधिक है, पर व्याधिके प्रभावसे इसकी अधिकर्ता दोषकारक नहीं, प्रत्युत लाभदायक होती है।
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कुटकी, नीमकी छाल, मौरेठी, त्रिफला, त्रायमाण प्रत्येक १ तोला, परवल की पत्ती व निसोथ प्रत्येक ४ तोला, मसूर ८ तोला, सबको दुरकुचाकर ४२ पल अर्थात् १६८ तोला जलमें पकाना चाहिये, १६ तोला बाकी रहनेपर उतार छान १६ तोला at मिलाकर पीना चाहिये इससे पैत्तिकगुल्म, ज्वर, तृष्णा,
शूल, भ्रम, मूर्छा तथा बेचैनी शान्त होती है ॥ २०-२२ ॥ - हुए लोहे के पात्रसे स्वेदन करना चाहिये ॥ २९ ॥
जिसकी अनि मन्द हो, पीड़ा भी मन्द हो, पेट भारी तथा जकड़ा हुआ तथा मिचलाई और अरुचि हो, उसे वमन कराना चाहिये ॥ २६ ॥
टिकादियोग्यता |
मन्देप्रावनिले मूढे ज्ञात्वा सस्नेहमाशयम् । गुडिकाचूर्णनिर्यूहाः प्रयोज्याः कफगुल्मिनाम् ॥२७॥ क्षारोऽरिष्टगणश्चापि दाहशोषे विधीयते । पञ्चमूलीकृतं तोयं पुराणं वारुणीरसम् ॥ २८ ॥ फगुल्मी पिबेत्काले जीर्ण माध्वीकमेव वा ।
अभिमन्द, वायुकी रुकावट और आशय स्निग्ध होनेपर गोली, चूर्ण और क्वाथ कफगुल्मवालोंको देना चाहिये । तथा जलन व शोष इत्यादिमें क्षार व अरिष्टका प्रयोग करना चाहिये । | पञ्चमूलका क्वाथ अथवा पुरानी ताड़ी अथवा पुराना माध्वीक ( शहद से बनाया गया आसव ) पीना चाहिये ॥ २७ ॥२८॥ -
स्वेदौ । तिलैरण्डात सीबी जसर्षपैः परिलिप्य वा ॥ २९ ॥ श्लेष्म गुल्ममयस्पात्रः सुखोष्णैः स्वेदयेद्भिषक् । तिल, अण्डी, अलसी व सरसोंको पीस, लेप कर गरम किये
तक प्रयोगः ।
यमानीचूर्णितं तकं बिडेन लवणीकृतम् ॥ ३० ॥ पिबेत्सन्दीपनं वातमूत्रवर्चोऽनुलोमनम् ।
मट्ठे में अजवायन तथा विड़नमकका चूर्ण डालकर पीनेसे अग्निदीप्ति तथा वायु, मूत्र और मलकी शुद्धता होती है ॥ ३०॥ -
द्वन्द्वजचिकित्सा |
व्यामिश्रदोषे व्यामिश्रः सर्व एव क्रियाक्रमः ॥ ३१ ॥ मिले हुए दोषों में मिली हुई चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ३१॥
सन्निपातजचिकित्सा ।
सन्निपातोद्भवे गुल्मे त्रिदोषघ्नो विधिर्हितः । यथोक्तेन सदा कुर्याद्भिषक् तत्र समाहितः ॥ ३२॥ सन्निपातज गुल्म में त्रिदोषनाशक चिकित्सा यथोक्त विधिसे करनी चाहिये ॥ ३२ ॥
वचादिचूर्णम् ।
वचाविडाभया शुण्ठी हिंगुकुष्ठाग्निदीप्यकाः । द्वित्रिषट्चतुरेकाष्टसप्तपञ्चाशिकाः क्रमात् । चूर्ण मद्यादिभिः पतिं गुल्मानाहोदरापहम् ॥३३॥ शूलार्थः श्वासकासनं ग्रहणीदीपनं परम् ।