________________
( १७२ )
चक्रदत्तः ।
चाहिये । इसका बलानुसार सेवन करना चाहिये । यह " धान्वन्तर घृत " कुष्ठ, गुल्म, प्रमेह, सूजन, वातरक्त, प्लीहोदर, अर्श, विद्रधि, प्रमेह, पिडिका, अपस्मार तथा उन्मादको नष्ट करता है । ओषधियां १ तुला होनेपर जल १ द्रोण छोड़ना चाहिये और ३ तुला द्रव्यसे अधिक होनेपर जल स्वाभाविक नियमसे अर्थात् चतुर्गुण छोड़ा जाता है । क्वाथ्य द्रव्य प्रत्येक १० पल लेनेसे १३ ॥ सेर और १ प्रस्थ के मानके ३ द्रव्य २ सेर ६ छ० २ तो० अर्थात् समग्र १५ सेर १४ छ० | बिहार करना चाहिये ॥ ३७ ॥ ३८ ॥
२ तोला क्वाथ्य द्रव्य हुआ । अतः जल तीन द्रोण तथा ३ सेर ९ छ० ३ तो० छोड़ना चाहिये ॥ ३०-३६ ॥
*
[ प्रमेहा
न चात्र परिहारोऽस्ति कर्म कुर्याद्यथेप्सितम् । प्रमेहान्मूत्रदोषांश्च बालरोगोदरं जयेत् ॥ ३८ ॥ गुग्गुल मिलाकर गोखरूके काथसे गोली बना लेनी चाहिये । त्रिकटु, त्रिफलाका चूर्ण समान भाग, सबके समान शुद्ध इसे देश, काल व बलके अनुसार सेवन करनेसे वायुका अनुलोमन होता है तथा प्रमेह, मूत्रदोष और बालरोग नष्ट होते हैं। इसमें कोई परिहार नहीं है । यथेष्ट आहार
शिलाजतुप्रयोगः ।
शालसारादितोयेन भावितं यच्छिलाजतु । पिवेत्तेनैव संशुद्धदेहः पिष्टं यथाबलम् ॥ ३९ ॥ जांगलानां रसैः सार्धं तस्मिञ्जीर्णे च भोजनम् ॥ कुर्यादेवं तुलां यावदुपयुञ्जीत मानवः ॥ ४० ॥ मधुमेहं विहायासी शर्करामश्मरीं तथा । वपुर्वर्णबलोपेतः शतं जीवत्यनामयः ॥ ४१ ॥ शालसारादि गणकी औषधियोंसे शुद्ध शिलाजतु इन्हींके क्वाथकें साथ पीसकर बलानुसार पीना चाहिये । तथा औषध हजम हो जानेपर जांगल प्राणियोंके मांसरसके साथ भोजन
* महादाड़िमाद्यं घृतम् - " दाडिमस्य फलप्रस्थं यवप्रस्थौ तथैव च । कुलत्थकुडबं चैव क्वाथयित्वा यथाविधि ॥ तेन पादावशेषेण घृतप्रस्थं विपाचयेत् । चतुःषष्टिपलं क्षीरं क्षीरतुल्यं वरीरसम् ॥ दत्त्वा मृद्वग्निना कल्केरक्षमात्रायुतैः सह । द्राक्षाखर्जूरकाकोलीदन्तीदाडिमजीरकैः ॥ तथा मेदामहामेदात्रिफलादारु- करना चाहिये । इस प्रकार १ तुला शिलाजतुका प्रयोग रेणुकैः । विशालारजनादारुहरिद्रा विकसामयैः ॥ कृमिघ्नभूमिकू - कर जानेसे मधुमेह, शर्करा, अश्मरी नष्ट होते और ष्माण्डश्यामैलाभिर्भिषग्वरः । पाने भोज्ये प्रदातव्यं सर्वर्तुषु च शरीर निरोग, वर्ण बलपूर्ण होकर १०० वर्षतक जीवन मात्रया ॥ प्रमेहाविंशतिं चैव मूत्राघातांस्तथाश्मरीम् । कृच्छ्रं धारण करता ॥ ३९-४१ ॥ सुदारुणं चैव हन्यादेतदसायनम् ॥ शूलमष्टविधं हन्ति ज्वरमष्टविधं तथा । कामलां पाण्डुरोगांश्च हलीमकमथारुचिम् ॥ श्लीपदं च विशेषेण घृतेनानेन नश्यति । इदमायुष्यमोजस्यं सर्वरोगहरं परम् ॥ दाड़िमाद्यमिदं नाम अश्विभ्यां निर्मितं महत् ॥" अनारके दाने ६४ तोला यव १२८ तो०, कुलथी १६ तो० सबसे अष्टगुण जल मिलाकर पकाना चाहिये, चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार, छानकर सिद्ध क्वाथ में घी १ सेर ९छ० ३ तो० तथा दूध ३ सेर १६ तो०, शतावरीका रस ३ सेर १६ तो० तथा मुनक्का, छुहारा, काकोली, दन्तीकी छाल, अनारदाना, जीरा, मेदा, महामेदा, त्रिफला, देवदारु, सम्भालू के बीज, इन्द्रायण, हल्दी, दारूहल्दी, मजीठ, कूठ, वायविडंग, बिदारीकन्द, कालीसारिवा, इलायची प्रत्येक १ तो० का कल्क छोड़कर पाक करना चाहिये । इसका अनुकूल मात्रामें प्रत्येक ऋतु में पान व भोजनके साथ प्रयोग करना चाहिये । यह २० प्रकारके प्रमेह, मूत्राघात, अश्मरी तथा दारुण मूत्रकृच्छ्रको नष्ट करता और रसायन है । तथा आठ प्रकारके शूल, आठों ज्वर, कामला, पाण्डुरोग, हलीमक, अाचे और श्लीपदको नष्ट करता है । यह भगवान् अश्विनीकुमारद्वारा बनाया हुआ "महादा डेमादिघृत" आयुष्य, ओजस्य व सर्वरोगनाशक है । ( यह कुछ प्रतियों में मिलता, कुछ में नहीं, अतः टिप्पणी में लिखा गया है ).
माक्षिकं धातुमप्येवं युञ्ज्यत्तस्याप्ययं गुणः । शालसारादिवर्गस्य क्वाथे तु घनतां गते ॥ ४३ ॥ दन्तीलोध्रशिवाकान्तलौहताम्ररजः क्षिपेत् । घनीभूतमदग्धं च प्राश्य मेहान्व्यपोहति ॥ ४४ ॥ स्वर्णमाक्षिक धातुका भी इसी प्रकार प्रयोग करना चाहिये, उसका भी यही गुण है । तथा शालसारादि वर्ग के क्वाथको पुनः पका क्काय गाढा हो जानेपर दन्ती, लोध, छोटी हर्र, कान्तलौइभस्म तथा ताम्र भस्मको छोड़ कर पकाना चाहिये । कड़ा हो जानेपर जलने न पावे, उसी दशामें उतारना चाहिये । इसको चाटनेसे प्रमेह नष्ट होते हैं ॥ ४३ ॥ ४४ ॥
त्र्यूषणादिगुग्गुलुः ।
त्रिकटुत्रिफला चूर्णतुल्ययुक्तं च गुग्गुलम् । गोक्षुरक्काथ संयुक्तं गुटिकां कारयेद्भिषक् ॥ ३७ ॥ देशकालबलापेक्षी भक्षयेच्चानुलोमिकीम् ।
विडंगादिलौद्दम् । विडंगात्रिफलामुस्तैः कणया नागरेण च । जीरकाभ्यां युतो हन्ति प्रमेहानतिदुस्तरान् ।
हो मूत्रविकारांश्च सर्वानेव न संशयः ॥ ४२ ॥ वायविडंग, त्रिफला, नागरमोथा, छोटी पीपल, सोंठ, सफेद जीरा और स्याह जीरासे युक्त लौहभस्म कठिन प्रमेह तथा मूत्रदोषों को नष्ट करता है, इसमें संशय नहीं ॥ ४२ ॥
माक्षिकादियोगः ।