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(२८) चक्रदत्तः।
[ज्वरातिसारासन्मन्स सन्न्न्न् नागरमोथा, बेलका गूदा, अतीस, पाढ़, चिरायता तथा श्लक्ष्णचूर्णीकृतान्सस्तित्तुल्यां वत्सकवचम् । कुड़ेकी छालका काथ ठण्ढा कर शहद मिला पिलानेसे घोर ज्वर सर्वमेकत्र संयोज्य प्रपिबेत्तण्डुलाम्बुना ॥ २३ ॥ तथा अतिसारको नष्ट करता है ॥१६॥
सक्षौद्रं वा लिहेदेतत्पाचनं पाहि भेषजम् ॥ घनादिक्वाथः।
तृष्णारुचिप्रशमनं ज्वरातीसारनाशनम् ॥ २४ ॥
कामलां ग्रहणीदोषान्गुल्मं प्लीहानमेव च । घनजलपाठातिविषापथ्योत्पलधान्यरोहिणीविश्वैः ।। सेन्द्रयवैः कृतमम्भःसातीसारं ज्वरं जयति ॥१७॥
प्रमेहं पाण्डुरोगं च श्वयधुं च विनाशयेत् ॥२५॥ नागरमोथा, सुगन्धवाला, पाढ, अतीस, छोटी हरी, सोंठ. काली मिर्च, छोटी पीपल, इन्द्रयव, नीमकी छाल, नीलोफर, धनियां, कुटकी, सोंठ तथा इन्द्रयवका काथ ज्वराति-चिरायता, भांगरा, चीतकी जड़, कुटकी, पाढ़ी, दारुहलदी, सारको नष्ट करता है ॥ १७ ॥
अतीस-सब चीजें समान भाग ले कूटकर कपड़छान करना __कलिङ्गादिगुटिका।
चाहिये । जितना चूर्ण हो उतनी ही कुड़ेकी छालका चूर्ण
मिलाकर चावलके जलसे पिलाना चाहिये । अथवा शहदके साथ कलिंगबिल्वजम्ब्वाम्रकपित्थं सरसाजनम् ।
चटाना चाहिये । यह चूर्ण आमका पाचन तथा दस्तोंको बन्द लाक्षाहारद्रे ह्रीबेरं कट्फलं शुकनासिकाम् ॥१८॥ करता है प्यास तथा अरुचिके सहित ज्वरातीसारको नष्ट लोभ्रं मोचरसं शंखं धातकीं वटशुङ्गकम् ।
करता है, कामला, संग्रहणी, गुल्म, प्लीहा, प्रमेह, पाण्डुरोग पिष्ट्वा तण्डुलतोयेन वटकानक्षसम्मितान् ॥९१॥ तथा सूजनको नष्ट करता है ॥ २२-२५ ॥ छायाशुष्कान्पिबेच्छीघ्र ज्वरातीसारशान्तये । रक्तप्रसादनाश्चैते शुलातीसारनाशनाः ॥२०॥
दशमूलीकषायः। इन्द्रयव, बेलका गूदा, जामुनकी गुठली, आमकी गुठली,
दशमूलीकषायेण विश्वमक्षसमं पिबेत् । केथेका गूदा, रसोंत, लाख, हलदी, दारुहल्दी, मुगन्धवाला, कैफरा, सोना पाठाकी छाल, पठानी लोध, मोचरस, शंखकी
ज्वरे चैवातिसारे च सशोथे ग्रहणीगदे ।। २६ ।। भस्म, धायके फूल, बरगदके नवीन पत्ते-सब समान भाग ले सोंठका चूर्ण १ तोला दशमूलके कोढेके साथ ज्वरातिसार महीन पीस चावेलके धोवनमें घोट एक तोलेकी गोली बनाकर तथा सूजन सहित ग्रहणी रोगको नष्ट करता है ॥२६॥ चावलके धोवनके साथ ही खिलाना चाहिये । इन गोलियोंसे ज्वरातिसार, शूलयुक्त अतीसार तथा रक्त विकार नष्ट
___विडंगादिचूर्ण क्वाथो वा। होते हैं ॥ १८-२०॥
विडंगातिविषामुस्तं दारु पाठा कलिंगकम । __ उत्पलादिचूर्णम् ।
मरिचेन समायुक्त शोथातीसारनाशनम् ॥ २७ ॥ उत्पलं दाडिमत्वक् च पद्मकेशरमेव च ।
बायबिडंग, अतीस, नागरमोथा, देवदारु, पाढ़, इन्द्रयव पिबेत्तण्डुलतोयेन:ज्वरातीसारनाशनम् ॥२१॥ तथा काली मिर्च का चूर्ण कर सूजनयुक्त अतीसारमें देना
नीलोफर, अनारके फलका छिलका, कमलका केशर चाहिये। अथवा क्वाथ बनाकर देना चाहिये ॥२७॥ इनका चूर्ण बना तण्डुलादकके साथ ज्वरातिसारकी शान्तिके लिये पीना चाहिये ॥२१॥
१ इसका अनुपान जो ऊपर लिखा है ज्वरातिसारका है। व्योषादिचूर्णम् ।
| भिन्न २ रोगोंमें भिन्न भिन्न अनुपानोंके साथ देना चाहिये । व्योषं वत्सकबीजं च निम्बभूनिम्बमार्कवम्। । २ यहांपर क्वाथकी प्रधानता होनेसे “कर्षचूर्णस्य कल्कस्य चित्रकं रोहिणी पाठां दामितिविषां समाम्।।२२॥ गुटिकानां च सर्वशः । द्रवशुक्त्या स लेढव्यः पातव्यश्च
चतुर्दवः।" यह परिभाषा न लगेगी, किन्तु " क्वाथेन चूर्णपानं १ कलिङ्गके स्थानमें कुछ आचार्य कटवङ्ग" पढते हैं। यत्तत्र क्वाथप्रधानता। प्रवर्तते न तेनात्र चूणापेक्षी चतुर्द्रवः॥" कट्वज-सोनापाठा । २ तण्डुलोदकविधि-" जलमष्टगुणं दत्त्वा | इस सिद्धान्तसे क्वाथकी प्रधानता निश्चित हो जानेपर “प्रक्षेपः पलं काण्डततण्डुलात् । भावयित्वा ततो ग्राह्यं तण्डलो-पादिकः क्वाथ्यात् " के अनुसार क्वाथ्यद्रव्यसे चतुर्थांश चूर्णका दककर्मणि ॥" ४ तोला चावल पानी में मिला धोकर ३२ प्रक्षेप करना चाहिये । अतएव पूर्ण मात्राके लिये शुण्ठीचूर्ण १ तोला जलमें मिलाकर कुछ देर रखनेके अनन्तर छानकर कर्ष लिखा है, क्वाथकी मात्रा हीन होनेपर प्रक्षेपरूप चूर्ण भी काममें लाना चाहिये।
उतनी ही कम मात्रामें छोड़ना चाहिये ।