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चक्रदत्तः।
[ अर्शी
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अग्निसे उत्पन्न हुई पीडाको घी और शहद लगा कर। त्रिफलायाः पञ्च पलं शिलाजतु पलं न्यसेत् । शान्त करना चाहिये । तथा सम्यग्दग्धमें वंशलोचन प्लक्षकी| दिव्यौषधिहतस्यापि वैकंकतहतस्य वा ॥१६२॥ छाल, सफेद चन्दन, गेरू और गुर्च सब महीन पीस घी मिला-| कर लेप करना चाहिये। फिर जलसे भीगे हए टबमें कुछ देर
पलद्वादशक देयं रुक्मलौहे सुचूर्णितम् । (दो घड़ीतक ) बैठना चाहिये ॥ १५५॥ १५६ ॥
पलैश्चतुर्विंशतिमिर्मधुशर्करयोर्युतम् ॥ १६३॥
घनीभूते सुशीते च दापयेदवतारिते । उपद्रवचिकित्सा।
एतदग्निमुखं नाम दुनोमान्तकरं परम् ॥ १६४॥ क्षारमुष्णाम्बुना पाय्यं विबन्धे मूत्रवर्चसोः।। सममाग्निं करोत्याशु कालाग्निसमतेजसम् । दाहे बस्त्यादिजे लेपः शतधौतेन सर्पिषा ॥१५७॥ पर्वता अपि जीर्यन्ते प्राशनादस्य देहिना ॥ १६५।। नवान्नं माषतकादि सेव्यं पाकाय जानता। गुरुवृष्यान्नपानानि पयोमांसरसो हितः। पिबेद् व्रणविशुद्धयर्थ वराकाथं सगुग्गुलुम् ॥१५८॥ दुर्नामपांडुश्वयथुकुष्ठप्लीहोदरापहम् ।। १६६ ॥
मल और मूत्रकी रुकावटमें गरम जलके साथ क्षार पिलाना | अकालपलितं चैतदामवातगुदामयम् । चाहिये । यदि बस्त्यादिमें जलन हो तो १०० बार धोये नस रोगोऽस्ति यं चापि न निहन्यादिदं क्षणात्१६७ हुए घृतका लेप करना चाहिये । यदि व्रण पकता हुआ जान
करीरकाञ्जिकादीनि ककारादीनि वर्जयेत् । पड़े, तो नवान्न, उड़द और मट्ठा आदि सेवन करना चाहिये । व्रणफी शद्धिके लिये त्रिफलाक्वाथ शुद्ध गुग्गुलुके साथ
स्रवत्यतोऽन्यथा लौहं देहात्किट्टं च दुर्जरम् ॥१६८ पीना चाहिये ॥ १५७ ॥ १५८ ॥
निसोथ, चीतकी जड़, सम्भालूका पञ्चाङ्ग, थूहर, मुण्डीकी
जड़ प्रत्येक आठ पल एक द्रोण जलमें पकाना चाहिये। पथ्यम् ।
चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छानकर वायविडंग १२ तोला, जीर्णे शाल्यन्नमुद्गादि पथ्यं तिक्ताज्यसैन्धवम् ॥१५९॥ सोंठ, काली मिर्च, छोटी पीपल प्रत्येक तीन तोला, आमला,
भूख लगनेपर उत्तम चावलोंका भात, मुंगको दाल, तिक्त हर्र, बहेड़ा प्रत्येक २० तोला, शिलाजतु ४ तोला, मनःशिला औषधियां अथवा उनसे सिद्ध पञ्चतिक्त घृत, सेंधानमक अथवा विकंकतसे भस्म किया हुआ तीक्ष्ण लौह ४८ तोला आदि पथ्य लेना चाहिये ॥ १२९ ॥
छोड़कर पकाना चाहिये । जब गाढ़ा पाक होजाय, तो उतार
ठण्ढाकर मधु ४८ तोला और शकर शुद्ध ४८ तोला मिलाकर अनुवासनावस्था।
रखना चाहिये । यह · अग्निमुख लौह ' अर्शको नष्ट करनेमें रूढसर्वत्रणं वैद्यः क्षारं दत्त्वानुवासयेत् ।
उत्तम है, शीघ्र ही समाग्निको दप्ति कर देता है । इसके सेवनसे पिप्पल्याधेन तैलेन सेवेहीपनपाचनम ॥ १६०॥ मनुष्य कठिन चीजोंको भी हजम कर डालता हैं । इसमें समस्त व्रण ठीक हो जानेपर क्षार मिलाकर पिप्पल्यादि
| भारी, वाजीकर, अन्नपान दुग्ध तथा मांसरस हितक तैलसे अनुवासन वस्ति देना चाहिये । और दीपन पाचन औष- पाण्डु, सूजन, कुष्ठ तथा प्लीहाको नष्ट करता हैं। असमय धियोंका सेवन करना चाहिये ॥१६॥
बालोंका सफेद हो जाना और आमवात आदि ऐसा कोई रोग
नहीं है, जिसे यह शीघ्र ही नष्ट न कर दे । करीर, कांजी, अग्निमुखं लौहम् ।
करेला आदि ककारादि द्रव्य न सेवन करना चाहिये। अन्यथा त्रिवृच्चित्रकनिर्गुण्डीस्नुहीमुण्डतिकाजटौः। लौह और किट्ट दुर्जर होनेसे विना पचे ही निकल प्रत्येकशोऽष्टपलिका जलद्रोणे विपाचयेत् ।
जाता है ॥ १६१-१६८॥ पलत्रयं विडंगस्य व्योषात्कर्षत्रयं पृथक् ॥१६१ ॥
१ यहां उक्त न होनेपर भी वैद्यलोग २४ पल घी छोड़ते १ यद्यपि शिवदासजीने यहां पर ' क्षारं दत्त्वा ' का | हैं। क्योंकि घीके विना लौह पाक नहीं होता, शक्कर और घकि अर्थ क्षारवस्ति देकर किया है, पर श्रीमान् चक्रपाणिजीने | साथ पाक करना चाहिये और शहद ठण्डा हो जानेपर छोड़ना क्षारवस्तिका कोई स्वतन्त्र विधान नहीं लिखा। अतः प्रतीत | चाहिये । मनःशिलासे सांक्षिप्त लौह मारणविधि-"लोहचूर्णे होता है कि उनको क्षार मिलाकर पिप्पल्यादि तैलसे ही अनु- सुविमले पादांशां विमलां शिलाम् । दत्त्वा कुमारीपयसा वैकङ्कवासन दना अभीष्ट था॥२"अज्झटेत्यपि पाठः । अज्झटातजलेन वा ॥ सम्पेष्य भिषजां वर्यः पुटयेत्सम्पुटस्थितम् । एवं भूम्यामलकी।।
नातिचिरेणैव लौहं तु सुमृतं भवत् ॥"