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धिकारः]
भाषाटीकोपेतः।
(१०१)
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धियोंसे सिद्ध तैल व घृत दाह तथा वातपित्तको नष्ट | अपस्मारमें कहेंगें, वह उन्मादमें भी करनी चाहिये। क्योंकि दोनोंमें करता है ॥६॥
| दोष तथा धातु समान ही दूषित होते हैं ॥१॥२॥ ___ फलिन्यादिप्रलेपः।
__स्वरसप्रयोगाः। फलिनी लोध्रसेव्याम्बु हेमपत्रं कुटन्नटम् ।
ब्राह्मीकूष्माण्डीफलषड्मन्थाशङ्खपुष्पिकास्वरसाः। कालीयकरसोपेतं दाहे शस्तं प्रलेपनम् ॥ ७॥ |
उन्मादहृतो दृष्टाः पृथगेते कुष्ठमधुमिश्राः ॥ ३ ॥ . प्रियंगु ( इसके अभावमें मेंहदी अथवा कमलगट्टागिरीके |
ब्राह्मी, कूष्माण्ड, वच तथा शंखपुष्पीमेंसे किसी एकका
स्वरस कूठका चूर्ण व शहद मिला चाटनेसे उन्माद नए वर्टी ) लोध, खश, सुगन्धवाला, नागकेशर, तेजपात,
होता है ॥ ३॥ मोथा, इनके चूर्णको पीले चन्दनके रसमें पीसकर लेप करना चाहिये ॥७॥
दशमूलक्काथः। हीबराद्यवगाहः।
दशमूलाम्बु सघृतं युक्तं मांसरसेन वा ।
ससिद्धार्थकचूर्ण वा पुराणं वैककं घृतम् ॥ ४॥ हीबेरपद्मकोशीरचन्दनक्षीदवारणा।
दशमूलका क्वाथ घी अथवा मांसरसके साथ अथवा सम्पूर्णमवगाहेत द्रोणी दाहार्दितो नरः॥८॥ सफेद सरसोंके चूर्णके साथ अथवा केवल पुराना घी सेवन सुगन्धवाला, पद्माख, खश, चन्दनके चूर्णसे युक्त जलसे करना चाहिये ॥ ४ ॥ भरे टबमें बैठना चाहिये ॥८॥
पुराणघृतलक्षणम् । इति दाहाधिकारः समाप्तः ।
उपगन्धं पुराणं स्याद्दशवर्षस्थितं घृतम् ।
लाक्षारसनिभं शीतं प्रपुराणमतः परम् ॥५॥ अथोन्मादाधिकारः। दश वर्षका पुराना घी लाक्षारसके समान लाल तथा
उग्र गन्धयुक्त होता है, इससे अधिक दिनका "प्रपुराण" कहा
जाता है ॥५॥ सामान्यत उन्मादचिकित्सोपायाः।
पायसः। उन्मादे वातिके पूर्व स्नेहपानं विरेचनम् ।। श्वेतोन्मत्तोत्तरदिङ्मूलसिद्धस्तु पायसः। पित्तजे कफजे वान्तिः परो बस्त्यादिकः क्रमः॥१॥ गुडाज्यसंयुतो हन्ति सर्वोन्मादास्तु दोषजान् ॥६॥ यच्चोपदेक्ष्यते किञ्चिदपस्माराचिकित्सिते । । सफेद धतूरेकी उत्तर दिशाको गयी जड़से सिद्ध दूधमें गुड़, उन्मादे तच्च कर्तव्यं सामान्यादोषदुष्ययोः॥ २॥ घी तथा चावल मिलाफर बनायी गयी खीर समस्त दोषज
उन्मादोंको शान्त करती है ॥६॥ वातोन्मादमें पहिले स्नेहपान, पित्तोन्मादमें पहिले विरेचन तथा कफोन्मादमें प्रथम वमन कराना चाहिये। तदनन्तर
उन्मादनाशकनस्यादि। वस्त्यादि क्रमका सेवन करना चाहिये । जो जो चिकित्सा उन्मादे समधुः पेयः शुद्धो वा तालशाखजः।
रसो नस्येऽभ्यजने च साषेपं तैलमिष्यते ॥७॥ माना है। पर निश्चलका मत है कि यहां आदि शब्द नहीं है,
अपक्कचटकी क्षीरपीतोन्मादविनाशिनी। अतः केवल शालपर्णी ही लेना चाहिये। शिवदासजीने इस मतको |
बद्धं सार्षपतलाक्तमुत्तानं चातपे न्यसेत् ॥ ८॥ अन्तमें लिखकर छोड़ दिया है, अतः प्रतीत होता है उन्हें भी
उन्मादमें शहदके साथ ताड़ी पीना चाहिये । अथवा केवल यही मत अभीष्ट था । यहांपर यद्यपि विभिन्न टीकाकारीने कल्क
ताड़ी पीना चाहिये । नस्य और मालिशमें सरसोंके तैलका और क्वाथ दोनों छोड़ना लिखा है, उसमें "कुशादिशालिपीभिः
प्रयोग करना चाहिये । कच्ची गुञ्जा पीसकर दूधके साथ क्वाथः जीवकाद्येन कल्कः ” अथवा “ कल्कक्काथावनिर्देशे
पिलानी चाहिये । तथा शरीरमे तैल लगवा बान्धकर उताना गणात्तस्मात्समावपेत् " इस वचनसे सभीसे कल्क क्वाथ लेना
धूपमें सुलाना चाहिये ॥७॥८॥ लिखा है । पर मेरे विचारसे चक्रपाणि लिखित पूर्व परिभाषा| " यत्राधिकरणे नोक्तिर्गणे स्यात्स्नेहसंविधौ । तत्रैव कल्कनि!हा
सिद्धार्थकाद्यगदः। विष्यते स्नेहवेदिना ॥ एतद्वाक्यबलेनैव कल्कसाध्यपरं घृतम्" के सिद्धार्थको हिङगु वचा करखो देवदारु च। सिद्धान्तसे केवल कल्क छोड़कर पाक करना चाहिये।
मशिधा त्रिफला श्वेता कटभीत्वकूकदात्रिकम् ॥९॥