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धिकारः ]
परमवृद्धि
वर्णप्रसाद पवनानुलोम्यम् ॥ ५७ ॥ रसायनस्यास्य नरः प्रयोगालभेत जीर्णोऽपि कुटीप्रवेशात् । जराकृतं रूपमपास्य सर्व बिभर्ति रूपं नवयौवनस्य ॥ ५८ ॥ सितामत्स्यण्डिकालाभे धात्र्याश्च मृदुभर्जनम् । चतुर्भागजले प्रायो द्रव्यं गतरसं भवेत् ॥ ५९ ॥
पाराशरं घृतम् ।
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उपयुक्त मात्रा सेवित हुआ यह कास तथा श्वासको नष्ट करनेवाला, क्षीणक्षत, वृद्ध तथा बालकों के शरीरको पुष्ट करनेवाला, स्वरभेद, उरःक्षत, द्रोग, वातरक्त, पिपासा तथा मूत्र और वीर्यके दोषोंको नष्ट करता है । इसकी मात्रा उतनी ही सेवन करनी चाहिये, जो भोजनको कम न करे । इसके प्रयोग से वृद्ध च्यवन फिर जवान हुए थे । इस रसायनके सेवनसे मेघा, स्मृति, कान्ति, नीरोगता, शरीरवृद्धि, इन्द्रियशक्ति, स्त्रीगमनशक्ति, अभिवृद्धि, वर्णकी उत्तमता तथा वायुकी अनुलोमता होती है । इसको " कुटी प्रावेशिक " विधिसे सेवन करनेसे वृद्ध पुरुष भी वृद्धता के लक्षणों को छोड़कर नवयोवनके रूपको धारण करता । मत्स्यण्डिकाके अभाव में मिश्री छोड़ना तथा आवलोको मन्द आंचसे मृदु भर्जन करना चाहिये । चतुर्थांश काथ रहनेपर प्रायः द्रव्य गतरस हो जाता है । ( यह प्रयोग चरकसंहिताका है | अतः उन्हीं के मानके अनुसार सब चीजों का मान लिखा है ) ॥ ५४-५९ ॥
यष्टी बलागुडूच्यल्प पञ्चमूलीतुलां पचेत् । शुपेंऽपामष्टभागस्थे तत्र पत्रं पचेद् घृतम् ॥ ६४ ॥ धात्रीविदारीक्षुर से त्रिपात्रे पयसोऽर्मणे । सुपिष्टेर्जीवनीयैश्च पाराशरमिदं घृतम् ॥ ६५ ॥ ससैन्यं राजयक्ष्माणमुन्मूलयति शीलितम् । अर्थात् प्रत्येक १० छ०) जल २ द्रोण ( ५१ सेर १८ मौरेठी, खरेटी, गुर्च, लघु पञ्चमूल सब मिलाकर ५ सेर तो ० ) जल छोड़कर पकना चाहिये । अष्टमांश शेष रहनेपर उतार छानकर १ आढक घी, १ आढक आंवलोंका रस, १ आढक विदारीकन्द रस, १ आढ़क ईखका रस, दूध १ मिलाकर पकाना चाहिये । यह पराशर महर्षिका बनाया घृत और घृतसे चतुर्थांश जीवनीय गणकी औषधियों का कल्क सेवन करने से ससैन्य राजयक्ष्माको नष्ट करता है ॥६४॥६५॥छागलाद्यं घृतम् ।
छागमांसतुलां दत्त्वा साधयेन्नवणेऽम्भसि । पादशेषेण तेनैव घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ ६६ ॥ ऋद्विवृद्धी च मेदे द्वे जीवकर्षभकौ तथा । काकोली क्षीरकाकोली कल्कैः पलमितैः पृथक् ||६७ सम्यक् सिद्धेऽवतार्याथ शीते तस्मिन्प्रदापयेत् । शर्करायाः पलान्यष्टौ मधुनः कुडवं तथा ॥ ६८ ॥ पलं पलं पिबेत्प्रातर्यक्ष्माणं हन्ति दुर्जयम् । क्षतक्षयं च कासं च पार्श्वशुलमरोचकम् ॥ ६९ ॥ स्वरक्षयमुरोरोगं श्वासं हन्यात्सुदारुणम् ।
जीवन्त्याद्यं घृतम् ।
जीवन्तीं मधुकं द्राक्षां फलानि कुटजस्य च । शटीं पुष्करमूलं च व्याघ्रीं गोक्षुरकं बलाम् ॥६०॥ नीलोत्पलं: तामलकीं त्रायमाणां दुरालभाम् । पिप्पलीं च समं पिष्ट्वा घृतं वैद्यो विपाचयेत् ॥ ६१ ॥ एतद्वयाधिसमूहस्य रोगेशस्य समुत्थितम् । रूपमेकादशविधं सर्पिरम्यं व्यपोहति ॥ ६२ ॥
कोपेतः ।
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छोटी पीपल व गुड़का कल्क दोनोंसे चतुर्गुण घी और घीसे चतुर्गुण बकरीका दूध तथा दूधके समान जल मिलाकर पकाना चाहिये । यह क्षय तथा कासवालोंको अभिवृद्धिके लिये सेवन करना चाहिये ॥ ६३ ॥
जीवन्ती, मौरेठी, मुनक्का, इन्द्रयव, कचूर, पोहकरमूल, छोटी कटेरी, गोखरू, खरेटी, नीलोफर, भूमि आंवला, त्रायमाण, यवासा, छोटी पीपल - सब समान भाग ले पीस जल मिलाकर कल्क बनाना चाहिये । कल्क द्रव्यसे चतुर्गुण घी और घीसे चतुर्गुण जल मिलाकर घी पकाना चाहिये । यह घी राजयक्ष्मा के समग्र लक्षणों को नष्ट करनेमें श्रेष्ठ है ॥ ६० - ६२ ॥
पिप्पलीघृतम् ।
पिप्पलीगुडसंसिद्धं छागक्षीरयुतं घृतम् । एतदभिविवृद्धयर्थं सव्यभ्व क्षयकासिभिः ॥ ६३ ॥
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बकरे का मांस ५ सेर जल २५ सेर ४८ तोले छोड़कर पकाना चाहिये, चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार छानकर १ प्रस्थ घी तथा ऋद्धि, वृद्धि, मेदा, महामेदा, जीवक, ऋषभक, काकोली, क्षीरकाकोली, ( शतावर, विदारीकन्द, असगन्ध, वाराहीकन्द ये उनके अभाव में छोड़ने चाहियें ) प्रत्येक ४ तोलाका कल्क छोड़कर घी पकाना चाहिये । सिद्ध हो जानेपर उतार छान ठण्ढाकर मिश्री ३२ तोला, शहद १६ तोला मिलाकर रखना चाहिये। इससे प्रतिदिन ४ तोलाकी मात्रा सेवन करना चाहिये । यह राजयक्ष्मा, क्षतक्षय, कास, पार्श्वशूल, अरोचक, स्वरभेद, उरःक्षत तथा कठिन श्वासको नष्ठ करता है ॥ ६६-६९ ॥ -
१ पात्रम् - आढकम् । २ नत्वणो = द्रोणः ।