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भाषाटीकोपेतः ।
धिकारः ]
करती है । त्रिसुगन्ध संस्कार होनेसे प्रत्येक ४ माशा लेना चाहिये ॥ ३५ ॥ ३६ ॥
मनःशिलादिधूमः ।
मनःशिलालमधुकमांसी मुस्तेङ्गुदैः पिबेत् । धूमं त्र्यहं च तस्यानु सगुडं च पयः पिबेत् ॥३७॥ एष कासान्पृथग्द्वन्द्वसर्वदोषसमुद्भवान् । शतैरपि प्रयोगाणां साधयेदप्रसाधितान् ॥ ३८ ॥ मनाशल, हरताल, मौरेठी, जटामांसी, नागरमोथा, तथा इंगुदीकी बत्ती बनाकर धूम पीना चाहिये, ऊपरसे गुड़का शर्वत पीना चाहिये । यह अनेकों प्रयोगोंसे न सिद्ध होनेवाले हजारों कासोंको नष्ट करता है ॥ ३७-३८ ॥
अपरो धूमः ।
मनःशिलालिप्तदलं बदर्या धर्मशोषितम् ।
सक्षीरं धूमपानात् महाकासनिर्बहणम् ॥ ३९ ॥ बेरी पत्तीपर मनशिलका लेप कर धूपमें सुखा कर धूम पान करनेसे महाकास नष्ट होता है । मनाशलको दूधमें पीस कर लेप करना चाहिये ॥ ३९ ॥
अन्यो धूमः ।
अर्कच्छलाशले तुल्ये ततोऽर्धेन कटुत्रिकम् । चूर्णितं वह्निनिक्षिप्तं पिबेद् धूमं तु योगवित् ॥४०॥ भक्षयेदथ ताम्बूलं पिबेद् दुग्धमथाम्बु वा । कासाः पञ्चविधा यान्ति शान्तिमाशु न संशय: ४१ आककी छाल और मनशिल समान भाग ले दोनोंसे आधामिलित त्रिकटु चूर्ण मिला कर अग्निमें जलाकर धूम पान करनेके बाद ऊपरसे पान खाने या दूध या जल पीनेसे शीघ्र ही पांचों कास नष्ट होते हैं ॥ ४० ॥ ४१ ॥
वार्ताकीधूमः ।
मरिचशिलार्क क्षीरैर्वार्ताकीं त्वचमाशु भावितां शुष्काम् । कृत्वा विधिना धूमं पिबतः कासाः शमं यान्ति ॥ ४२ ॥
मिर्च, मनःशिला और बैंगनकी छालको आकके दूधमें भावना देकर बत्ती बना सुखाकर धूम्रपान करनेसे समस्त कास शान्त होते हैं ॥ ४२ ॥
दशमूलघृतम् ।
दशमूलीकषायेण भाङ्गीकल्कं पचेद् घृतम् । दक्षतित्तिरिनिर्यूहे तत्परं वातकासनुत् ॥ ४३ ॥
दशमूलके काढ़े और मुर्गा व तीतरके मांसरसमें भारं - गोका कल्क छोड़कर सिद्ध किया घृत वातकासको नष्ट है ॥ ४३ ॥
करता
(८७)
१ यहां पर " त्रिसुगन्ध " के शम्बन्धमें शिवदासजीने लिखा है- ' सर्वचूणापेक्षया चतुर्थांशेन मिलितं त्रिसुगन्धिचूर्णम् । अर्थात् समस्त चूर्णकी अपेक्षा चतुर्थांश मिलित त्रिसुगन्धि ( दालचीनी, तेजपात, इलायची ) का चूर्ण लेना चाहिये ।
अपरं दशमूलघृतम् ।
दशमूलाढके प्रस्थं घृतस्याक्ष समेः पचेत् । पुष्कराहटीबिल्वसुरसव्योषहिङ्गुभिः ॥ ४४ ॥ पेयानुपानं तद्देयं कासे वातकफाधिके । श्वासरोगेषु सर्वेषु कफवातात्मकेषु च ।। ४५ ।
दशमूलका काथ एक आढक, पोहकरमूल, कचूर, बेलका गूदा और तुलसी तथा त्रिकटु व हींग प्रत्येक एक कर्ष मिला कल्क बनाकर एक प्रस्थ श्री मिलाकर पकाना चाहिये । इसे पेया के अनुपानके साथ देनेसे वातकफात्मक कास तथा श्वास नष्ट होते हैं ॥ ४४ ॥ ४५ ॥
दशमूलषट्पलकं घृतम् ।
दशमूलीचतुःप्रस्थे रसे प्रस्थोन्मितं हविः । सक्षारैः पञ्चकोलैस्तु कल्कितं साधु साधितम् ॥४६ कासहृत्पार्श्वशूलघ्नं हिक्काश्वासनिबर्हणम् । कल्कं षट्पलमेवात्र ग्राहयन्ति भिषग्वराः ॥ ४७ ॥
दशमूलका काथ ४ प्रस्थ, घी १ प्रस्थ, यवाखार व पञ्चकोल प्रत्येक एक पल कल्क बना छोड़कर घी पकाना चाहिये । यह घी - कास, हृदय व पसलियों का शूल, हिका, श्वास नष्ट करता है । इसमें प्रत्येक कल्क द्रव्यका कल्क १ एक पल अर्थात् मिलकर ६ पल ही कल्क वैद्य छोड़ते हैं ॥ ४६ ॥ ४७ ॥
कण्टकारीद्वयम् ।
कण्टकारीगुडूचीभ्यां पृथक् त्रिंशत्पलाद्रसे । प्रस्थः सिद्धो घृताद्वातकासनुद्वह्निदीपनः ।। ४८ ।। घृतं रास्नाबलाव्योवश्वदंष्ट्राकल्कपाचितम् । कण्टकारीर से पीतं पञ्चकास निषूदनम् ॥ ४९ ॥ कण्टकारी तथा गुर्च प्रत्येकका १२० तोला क्वाथ ( या रस ) घी १ प्रस्थ मिलाकर सिद्ध करनेसे वातकासको नष्ट तथा अभिको दीप्त करनेवाला होता है । इसी प्रकार चतुर्गुण कण्टकारीके रस में १ भाग घृत और घृतसे चतुर्थाश रासन, खरेटी, त्रिकटु, गोखरूका कल्क मिलाकर सिद्ध किया घृत- पांचों प्रका के कासको नष्ट करता है ॥ ४८ ॥ ४९ ॥