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(८८)
चक्रदत्तः ।
बृहत्कण्टकारीघृतम् ।
सपत्रमूलशाखायाः कण्टकार्या रसाढके । घृतप्रस्थं बलान्योषविडङ्गशटिचित्रकैः ॥ ५० ॥ सौवर्चलयवक्षार बिल्वामलकपुष्करैः वृश्चीर बृहतीपध्यायमानीदाडिमधिभिः ॥ ५१ ॥ द्राक्षापुनर्नवाचव्यधन्वयासाम्लवेतसैः । शृङ्गीता मलकी भाङ्गरास्नागोक्षुरकैः पचेत् ॥ ५२ ॥ कल्कैस्तु सर्वकासेषु हिक्काश्वासे च शस्यते । कण्टकारीघृतं सिद्धं कफव्याधिविनाशनम् ॥ ५३ ॥
घी और खरेटी, त्रिकटु, विडंग, कचूर, चीतकी जड़ कालानमक, यवाखार, बेलका गूदा, आंवला, पोहकर मूल, पुनर्नवा, बड़ी कटेरी, हर्र, अजवायन, अनारदाना, ऋद्धि, मुनक्का, पुनर्नवा, चव्य, यवासा, अम्लवेत, काकड़ाशिंगी, भूम्यामलकी, भारंगी, रासन, गोखरूका मिलित कल्क घी से चतुर्थांश छोड़कर पकाना चाहिये । इससे कफरोग, कास, श्वास विका आदि नष्ट होते हैं ॥ ५०-५३ ॥
[ कासरोगा
रास्नाद्यं घृतम् ।
द्रोणेऽपां साधयेद्रास्नां दशमूलीं शतावरीम् । पलिकां मानिकांशांस्त्रीन्कुलत्थान्बदान्यवान् ॥५४ तुला चाजमांसस्य तदशेषेण तेन च । घृताढकं समक्षीरं जीवनीयैः पलोन्मितैः ॥ ५५ ॥ सिद्धं तद्दशभिः कल्कैर्नस्यपानानुवासनैः । समीक्ष्य वातरोगेषु यथावस्थं प्रयोजयेत् ॥ ५६ ॥ पञ्चकासान् क्षयं श्वासं पार्श्वशूलमरोचकम् । सर्वाङ्गैकाङ्गरोगांश्च सप्लीहोर्ध्वानिलं जयेत् ।। ५७ जीवकर्षभको मेदे काकोल्यो शूर्पपर्णिके । जीवन्ती मधुकं चैव दशको जीवको गणः ॥ ५८ ॥
अगस्त्यहरितकी ।
दशमूलीं स्वयंगुप्तां शंखपुष्पीं शटीं बलाम् । हस्ति पिप्पल्यपामार्गपिप्पलीमूलचित्रकान् ॥ ५९ ॥ भाङ्गपुष्करमूलं च द्विपलांशं यवाढकम् । हरीतकीशतं चैकं जलपश्वाढके पचेत् ॥ ६० ॥ यः स्विन्नैः कषायं तं पूतं तच्चाभयाशतम् । पचेद् गुडतुलां दत्त्वा कुडवं च पृथग्घृतात् ॥ ६१ ॥ तैलात्सपिप्पलीचूर्णात्सिद्धशीते च माक्षिकात् । लिह्याद् द्वे चाभये नित्यमतः खादेद्रसायनात् ॥ ६२॥ तद्वलीपलितं हन्यान्मेघायुर्बलवर्धनम् । पञ्चकासान्क्षयं श्वासं हिक्काः सविषमज्वरान् ॥ ६२ हन्यात्तथा ग्रहण्यर्शोहृद्रोगारुचिपीनसान् । अगस्त्य विहितं धन्यमिदं श्रेष्ठ रसायनम् ॥ ६४ ॥
दशमूल, कौंच के बीज, शंखपुष्पी, कचुर, खरेटी, गजपीपल, लटजीरा, पिपरामूल, चीतकी जड़, भारंगी, पोहकरमूल प्रत्येक ८ तोला, यव एक आढ़क, बड़ी हरे १००, जल ५ आढ़क | मिलाकर पकाना चाहिये । यव पक जानेपर काढ़ा उतारकर छान लेना चाहिये और हर्र अलग निकाल लेना चाहिये । फिर काढा व हर्र व गुड़ ५ सेर तथा घी व तैल प्रत्येक ३२ तोला, छोटी पीपलका चूर्ण १६ तोला छोड़कर पकाना चाहिये । सिद्ध हो जानेपर ठण्ढाकर ३२ तोला शहद मिलाना चाहिये । फिर प्रतिदिन २ हरें इसकी खाकर ऊपरसे २ तोला अवलेह चाटना चाहिये । यह रसायन है। बालोंकी सफेदी तथा झुर्रियों को नष्ट करता, मेधा, आयु व बलको बढ़ाता है। पांचों का क्षय, श्वास, हिक्का, विषमज्वर, ग्रहणी, अर्श, हृद्रोग, अरुचि, व पीनसको नष्ट करता है । महर्षि अगस्त्यका बताया यह श्रेष्ठ रसायन है । ५९-६४ ॥
हरीतकी ।
समूलपुष्पच्छदकण्टकार्यास्तुलां जलद्रोणपरिप्लुतां च । हरीतकीनां च शतं निदध्या
रासना, दशमूलकी औषधियां, शतावर प्रत्येक एक पल, कुलथी, बेर व यव प्रत्येक ३२ तोला, बकरीका मांस २ ॥ सेर एक द्रोण जल मिला पका छानकर क्वाथमें एक आढ़क घी एक आढक दूध और २ आढ़क जल तथा जीवनीय गण ( जीवक, ऋषभक, काकोली, क्षीर काकोली, मेदा महामेदा, मुद्रपर्णी, माषपर्णी, जीवन्ती मधुक ) इनका कल्क प्रत्येक ४ तोला छोड़कर घी पकाना चाहिये । यह घी - नस्य, पान, अनुवासन वस्तिद्वारा जहां जैसा उचित हो, वातरोगों में प्रयोग करना चाहिये । यह पांच प्रकारके कास, क्षय, पाश्व शूल, अरोचक, सर्वांग, एकांग रोग, प्लीहा, तथा ऊर्ध्ववातको नष्ट करता है । जीवनीयगण कोष्ठ में लिखा समझिये ॥ ५४-५८ ॥
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१ यहांपर यवोंका स्वेदन चतुर्थांश रह जानेपर हो जाता है । यद्यपि कुछ आचार्यांने अष्टमांश शेष लिखा है, पर वह सुश्रुत विरुद्ध पड़ता है । अतएव शिवदासजीको अभीष्ट नहीं है । तथा घृत, तैल व शहद यहां द्विगुण ही लिये जाते हैं । यद्यपि घृतके समान शहद यहां पड़ता है, पर द्रव्यान्तरसे संयुक्त होनेके कारण विरुद्ध नहीं होता ।
दथात्र पक्त्वा चरणावशेषे ।। ६५ ।।