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चक्रदत्तः।
[क्रिमिरोगा-
- - उपद्रवचिकित्सा।
पारिभद्रार्कपत्रोत्थं रसं क्षौद्रयुतं पिबेत् ।
केबुकस्य रसं वापि पत्तूरस्याथ वा रसम् । पिपासायामनूत्लेशे लवंगस्याम्बु शस्यते ।।
लिह्यात्क्षौद्रेण वैडंग चूर्ण क्रिमिविनाशनम् ॥२॥ जातीफलस्य वा शीतं शृतं भद्रघनस्य वा ॥ ८८॥ विषूच्यामतिवृद्धायां पायर्योर्दाहः प्रशस्यते। | नीम तथा आकके पत्तोंका रस शहदके साथ अथवा वमनं त्वलसे पूर्व लवणेनोष्णवारिणा ॥ ८९॥ केबुक अथवा जलपिप्पली (या पीतचन्दन ) का रस अथवा स्वेदो वर्तिलंघनं च क्रमश्चातोऽग्निवर्धनः
बायविडंगका चूर्ण शहदके साथ चाटनेसे क्रिमि नष्ट होते हैं॥२॥ सरक् चानद्धमुदरमम्लपिष्टैः प्रलेपयेत् ।
मुस्तादिकाथः । दारुहेमवतीकुष्ठशताबाहिंगुसैन्धवैः॥९० ॥ तक्रेण युक्तं यवचूर्णमुष्णं
मुस्ताखुपर्णीफलदारुशिग्रुसक्षारमाति जठेर निहन्यात् ।
__ काथः सकृष्णाक्रिमिशत्रुकल्कः। स्वेदो घटैर्वा बहुबाष्पपूणे
मार्गद्वयेनापि चिरप्रवृत्तान् रुष्णैस्तथान्यैरपि पाणितापैः ॥ ९१ ॥
क्रिमीनिहन्ति क्रिमिजांश्च रोगान् ॥३॥ यदि मिचलाहट और प्यास अधिक हो, तो लवंगका जल |
नागरमोथा, मूसाकानी, मैनफल, देवदारु, सहिजनके अथवा जायफलका जल अथवा नागरमोथाका जल पीना |
बीजका काथ, छोटी पीपल तथा बायविडंगका चूर्ण छोड़कर
"पीनेसे दोनों मागोंसे अधिक समयसे आते हए क्रिमियों तथा चाहिये । बहुत बढ़ी विषूचिकामें एडियोंको दाग देना चाहिये। पान अलसक (जिसमें न वमन हो न दस्त) में पहिले नमक मिले काड़ासे उत्पन्न होनेवाले रोगोंको नष्ट करता है॥३॥ गरम जलसे वमन कराना चाहिये । फिर स्वेदन, फलवर्तिधारण
पिष्टकपूपिकायोगः। और लंघन कराकर अग्निवर्द्धक उपाय करने चाहिये । यदि पेटमें पीड़ा तथा अफारा हो, तो देवदारु, वच, कूट, सौंफ, हींग, आखुपर्णीदलैः पिष्टैः पिष्टकेन चा पूपिकाम् । सेंन्धानमकको काजीमें पीसकर पेटपर लेप करना चाहिये । जग्ध्वा सौवीरकं चानु पिबेक्रिमिहरं परम् ॥४॥ मठेके साथ यवचूर्ण व यवाखार गरम कर लेप करनेसे उदरकी |
| मसोकानीके पत्तोंको पीस आटेमें मिलाकर पूड़ी बनानी पीडाको नष्ट करता है। तथा भापसे भरे घटसे स्वेदन |
स्वदन | चाहिये। इन पूड़ियोंको खाकर ऊपरसे काजी पीनेसे क्रीड़े नष्ट करना अथवा हाथ आदि गरमकर सकनेसे उदरशूल नष्ट होते हैं । होता है॥८८-९१॥ तीब्रार्तिरपि नाजीर्णी पिबेच्छूलन्नमषिधम् ।
पलाशबीजयोगः। दोषाच्छन्नोऽनलो नालं पक्तुं दोषोषधाशनम्॥९२॥ पलाशबीजस्वरसं पिबेदा क्षौद्रसंयुतम् ।
अजीर्णी तीव्र पीड़ा होनेपर भी शूलग्न औषध न खावे, पिबेत्तद्वीजकल्कं वा तक्रेण क्रिमिनाशनम् ॥ ५॥ क्योंकि आमसे ढका अग्नि दोष औषध और भोजनको नहीं
ढाकके बीजोंका स्वरस शहदके साथ अथवा उन्हींका कल्क पका सकता ॥ ९२॥
मठेके साथ पानसे क्रिमिरोग नष्ट होता हैं ॥५॥ इत्यग्निमान्याधिकारः समाप्तः ।
सुरसादिगणकाथः विडंगादिचूर्णं च । अथ क्रिमिरोगाधिकारः।
सुरसादिगणं वापि सर्वथैवोपयोजयेत् । विडंगसैन्धवक्षारकाम्पिल्लकहरीतकीः ॥६॥
पिबेत्तऋण सपिष्टाः सर्वाक्रिमिनिवृत्तये । पारसीकयवानिकाचूर्णम् ।
१ यहां मूसाकानीके पत्तोंके ३ भाग और पिष्टक ( यवका पारसीकयवानिका पीता पर्युषितवारिणा प्रातः। आटा): भाग लेना शिवदासजीने सुश्रुतके टीकाकारका मत गुडपूर्वा क्रिमिजातं काष्ठगतं पातयत्याशु ॥ १॥ | दिखलाते हुए लिखा है । निश्चलके मतसे पिष्टकसे चावलकी प्रथम गुड खाकर ऊपरसे खुरासानी अजवाइन बासी पानीके पिही होना चाहिये । पर क्रिमिनाशक होनेसे यवपिष्टक ही साथ उतारनेसे कोष्ठगत क्रिमिसमूहको गिरा देती है ॥१॥ श्रेष्ठ है।