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धिकारः]
भाषार्टीकोतः।
(७३)
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नाकसे आता हो, उसे नस्य देना चाहिये । जिसके कानोंसे आता पकाना चाहिये । घृत सिद्ध हो जानेपर घृतसे चतुर्थांश शहद हो, उसके कानों में छोड़ना चाहिये । यदि नेत्रसे खून आता हो, और मिश्री मिलाकर छान लेना चाहिये । पर मिश्रीका चूर्ण तो नेत्रोंमें भरना चाहिये । गुदा या लिङ्गसे यदि रक्त आता कुछ गरममें और शहद ठण्ढा होनेपर छोड़ना चाहिये । यह हो, तो वस्तिं देना चाहिये और रोमकूपोंसे आता हो, तो इसकी घृत रक्तपित्त, वातरक तथा क्षीणशुक्रवालोंको लाभ करता है। मालिश करना चाहिये ॥ ३७-४१॥
कन्धों तथा शिरकी जलन, पित्तज्वर, योनि-शूल, दाह, पैत्तिक
| मूत्र कृच्छ्रको यह घृत जैसे छोटे छोटे मेघोंके टुकड़ोंको वायु शतावरीघृतम्।
वैसे ही नष्ट करता है। तथा बल, वर्ण और अनिको उत्तम शतावरीदाडिमतिन्तिडीकं
बनाता है। ४४-४९ ॥. काकोलिभेद मधुकं विदारीम् ।
प्रक्षेपमानम्। पिष्ट्वा च मूलं फलपूरकस्य
स्नेहपादः स्मृतः कल्कः कल्कवन्मधुशर्करे।। घृतं पचेत्क्षीरचतुर्गुणं ज्ञः ॥४२॥
इति वाक्यबलात्स्नेहे प्रक्षेपः पादिको भवेत्॥५०॥ कासवरानाहविबन्धशूलं
"स्नेहसे चतुर्थांश कल्क और कल्कके समान ही शहद और तद्रक्तपित्तं च घृतं निहन्यात् ।। ४३॥
शबर मिलित छोड़ना चाहिये " इस परिभाषासे प्रक्षेप नेहसे शतावर, अनारदाना, अमली, काकोली, * मेदा, मारठा, चतुर्थाश छोड़ना चाहिये ॥५०॥ विदारीकन्द तथा बिजौरे निम्बूकी जड़का कल्क छोड़ चतुर्गुण | दूध मिलाकर घृत पकाना चाहिये । यह घृत कास, ज्वर, पेटका |
वासाघृतम् । दर्द, अफारा और रक्तपित्तको नष्ट करता है ॥ ४२ ॥ ४३ ॥
बासां सशाखां सपलाशमूलां महाशतावरीघृतम् ।
कृत्वा कषाय कुसुमानि चास्याः।
प्रदाय कल्कं विपचेद् घृतं तत्शतावर्यास्तु मूलानां रसप्रस्थद्वयं मतम् ।
सक्षौद्रमाश्वेव निहन्ति रक्तम् ॥५१॥ तत्समं च भवेत् क्षीरं घृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ ४४॥ अडूसेके पञ्चांगका क्वाथ और अडूसेके फूलोंका करक छोड़जीवकर्षभको मेदा महामेदा तथैव च। कर घृत पकाना चाहिये । यह घृत शीघ्र ही रक्तपित्तको नष्ट काकोली क्षीरकाकोली मृद्वीका मधुकं तथा ॥४५॥ करता है ॥२१॥ मुद्रपर्णी माषपर्णी विदारी रक्तचन्दनम् ।
पुष्पकल्कमानम्। शर्करामधुसंयुक्तं सिद्धं विस्रावयेद्भिषक् ॥४६॥
शणस्य कोविदारस्य वृषस्य ककुभस्य च । रक्तपित्तविकारेषु वातरक्तगदेषु च ।
कल्काढयत्वात्पुष्पकल्कं प्रस्थे पलचतुष्टयम् ॥५२॥ क्षीणशक्रेषु दातव्यं वाजीकरणमुत्तमम् ॥ ४७ ॥
शण, कचनार, अडूसा तथा अर्जुनके फूलोंका कल्क अधिक अंसदाहं शिरोदाहं ज्वरं पित्तसमुद्भवम् । | होनेके कारण १ प्रस्थ (द्रवद्वैगुण्यात्-१सेर ९ छ० ३ तो०) योनिशलं च दाहं च मूत्रकृच्छंच पैत्तिकम् ॥४८॥ में इनका कल्क ४ पल अर्थात् १६ तो. ही छोड़ना एतान्रोगानिहन्त्याशु छिन्नाभ्राणीव मारुतः। चाहिये ॥५२॥ शतावरीसापरिदं बलवर्णाग्निवर्धनम् ॥ ४९॥
कामदेवघृतम् । ताजी शतावरी की जड़का रस २ प्रस्थ और दूध दो प्रस्था
अश्वगन्धापलशतं तदधै गोक्षुरस्य च । और घी १ प्रस्थ तथा जीवक, ऋषभक, तथा मेदा, महामेदा,
शतावरी विदारी च शालिपी बला तथा ॥५३॥ काकोली, क्षीरकाकोली, मुनक्का, मौरेठी, मुद्गपर्णी, माषपणी,
अश्वत्थस्य च शुङ्गानि पद्मवीजं पुनर्नवा। विदारीकन्द, लालचन्दनका कल्क घृतसे चतुर्थाश छोड़कर घृत
काश्मरीफलमेवं तु माषबीज तथैव च ॥५४॥
पृथग्दशपलान्भागांश्चतुर्दोणेऽम्भसः पचेत् । * इसमें काकोलीके अभावमें असगन्ध और भेदाके अभा
चतुर्भागावशेषे तु कषायमवतारयेत् ॥ ५५ ॥ वमें शतावर छोड़ना चाहिये । तिन्तिडीकके बीज छोटे लाल चिरौंजीके समान होते हैं। पसारी इन्हें त्रायमाणके नामसे देते हैं। मृद्वीका पनकं कुष्ठं पिप्पली रक्तचन्दनम् । कोई कोई इमली ही छोड़ते हैं । तथा सम्यक् पाकार्थ चतुर्गुण | बालकं नागपुष्पं च आत्मगुप्ताफलं तथा ॥ ५६॥ जल भी छोड़ना चाहिये।
नीलोत्पलं शारिवे द्वे जीवनीयं विशेषतः।