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चक्रदत्तः।
[राजयक्ष्मा
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वातरक्तं प्रमेहं च शीतपित्तं वमि लमम् । __ वर्जनीयं विशेषेण खण्डकाद्यं प्रकुर्वता । श्वयथु पाण्डुरोग च कुष्ठं प्लीहोदरं तथा ।। ८९॥ लोहान्तरवदत्रापि पुटनादिक्रियेष्यते ॥ ९५॥ आनाहं रक्तसंस्रावं चाम्लपित्तं निहन्ति च ।।
बकरी, कबूतर, तीतर, कैकड़ा, खरगोश, काला मृग, चक्षुष्यं बृहणं वृष्यं माङ्गल्यं प्रीतिवर्धनम् ॥ १०॥
"तथा मृग इनका मांस, नरियलका जल, चौपतिया, आरोग्यपुत्रदं श्रेष्ठ कामाग्निबलवर्धनम्।
| बथुवा, सूखी मूली, जीरा, परवल, बड़ी कटेली, बैंगन, श्रीकर लाघवकरं खण्डकाद्यं प्रकीर्तितम् ॥ ९१ ॥ पके आम, छुहारा, मीठा अनार खाना चाहिये। जिन वस्तु
ओंके नामके आदिमें ककार है ऐसी चीजें तथा अनूपमांस शतावरी, गुर्च, अडूसा, मुण्डी, खरेटी, मुसली, कत्था,
""| खण्डकाय' सेवन करनेवालोंको त्याग देना चाहिये । दूसरे त्रिफला, भारंगी, पोहकरमूल प्रत्येक ५ पल (२० तोला ) एक
प्रयोगोंके समान इसमें भी लौहभस्म ही छोड़ना चाहिये९२-९५ द्रोण जलमें पकाना चाहिये । अष्टमांश शेष रहनेपर उतारकर छान लेना चाहिये। फिर इसमें मनःशिला अथवा स्वर्ण माक्षिकके।
परिशिष्टम् । योगसे बनाया कान्तलौहभस्म ४८ तोला, घी ६४ तोला,
___ यच्च पित्तवरे प्रोक्तं बाहरन्तश्च भेषजम् । मिश्री ६४ तोला छोड़कर पकाना चाहिये । अवलेह सिद्ध हो जानेपर वंशलोचन, शिलाजतु, दालचीनी, काकड़ासिंही,
रक्तपित्ते हितं तच्च क्षीणक्षतहितं च यत् ॥ ९६ ॥ वायविडंग, छोटी पीपल, सोंठ, जीरा, प्रत्येक ४ तोला, जो पित्तज्वरके लिये बाहरी तथा भीतरी चिकित्सा कही गई त्रिफला, धनियां, तेजपात, काली मिर्च, नागकेशर प्रत्येक है, वह तथा क्षतक्षीणकी जो चिकित्सा है, वह रक्तपित्तमें २ तोला चूर्ण छोड़ ठंढा हो जानेपर शहद ३२ तोला छोड़ लाभदायक होती है ॥ ९६ ॥ मिलाकर चिकने बर्तन में रख लेना चाहिये । इसका १ तोला प्रतिदिन सेवन करना चाहिये। अनुपान-गायका दूध, पथ्य-दूध,
इति रक्तपित्ताधिकारः समाप्तः। । मांसरस, भारी तथा वाजीकर अन्नपान तथा बृंहण मांसादि सेवन करना चाहिये । यह " खण्डकाद्यावलेह " रक्तपित्त,क्षय, कास, अथ राजयक्ष्माधिकारः। परिणामशूल, वातरक्त, प्रमेह, शीतपित, वमन, ग्लानि, सूजन, पांडुरोग, कुष्ठ, प्लीहा, आनाह, रक्तस्राव तथा, अम्लपित्तको नष्ट करता, नेत्रबल शरीखुद्धि, वीर्य, मङ्गल तथा प्रसन्नता उत्पन्न
राजयक्ष्मणि पथ्यम् । करनेवाला, आरोग्य, पुत्र, काम, अग्नि तथा बलको बढ़ानेवाला, शरीरकी शोभा तथा लाघव करनेवाला है॥८१-९१ ।।
शालिषष्टिकगोधूमयवमुद्रादयः शुभाः।
मद्यानि जाङ्गलाः पक्षिमृगाः शस्ता विशष्यताम॥१ अत्र पथ्यापथ्यम्।
शुण्यतां क्षीणमांसानां कल्पितानि विधानवित् । छागं पारावतं मांसं तित्तिरिः कराः शशाः।।
दद्यात्क्रयादमांसानि बृंहणानि विशेषतः ॥२॥
शालि तथा साठीके चावल, गेहूं, यव, मूंग, शराब, जांगल कुरङ्गाः कृष्णसाराश्च तेषां मांसानि योजयेत्॥१२॥
प्राणियोंका मांस हितकर है। जिनका मांस क्षीण हो गया है, नारिकेलपयःपानं सुनिषण्णकवास्तुकम् । उन्हें मांस खानेवाले प्राणियोंका मांस खिलाना अधिक पौष्टिक शुष्कमूलकजीराख्यं पटोलं बृहतीफलम् ॥ ९३॥ होता है ॥ १ ॥२॥ फलं वार्ताकु पक्कानं खरं स्वादु दाडिमम् ।।
शोधनम् । ... ककारपूर्वकं यच्च मांसं चानूपसम्भवम् ।। ९४॥ ।
दोषाधिकानां वमनं शस्यते सविरेचनम् ।
स्नेहस्वेदोपपन्नानां स्नेहनं यन्न कर्षणम् ॥३॥ १ कुछ आचाय इस प्रयोगमें गन्धक, अभ्रक और रसको। भी मिलाते हैं और इसीके अनुकूल प्रमाण देते हैं । “न रसेन जिनके दोष अधिक बढे हैं, उन्हें नेहन स्वेदन कराकर स्निग्ध विना लोहं गन्धकं चाभ्रक विना । तथा चपलेन विना लोहं यः पदाथोंसे वमन अथवा विरेचन कराना चाहिये । पर शोधन ऐसा करोति पुमानिह ॥ उदरे तस्य किटानि जायन्ते नात्र संशयः।" हो, जिससे कृशता न बढ़े॥३॥ पर यह व्यवहार सिद्ध नहीं है। उपरोक्त प्रमाण केवल चतुःसमलौहके लिये है । अतएव वहां 'इह' शब्द भी पढ़ा है । यह शुद्धकोष्ठस्य युजीत विधि बृंहणदीपनम् । शिवदासजीका मत है ॥
कोष्ठ शुद्ध हो जानेपर बृंहण तथा दीपन प्रयोग करना चाहिये।