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कलिङ्गं शाल्मलीपुष्पं वीरा चन्दनमञ्जनम् । । __ आढकं त्वेकमादाय जलद्रोणे पचेद्भिषक् । कट्फलं चित्रक मुस्तं प्रियङ्ग्वतिविषे स्थिरा ॥१३१/ चतुर्भागावशिष्टेन वस्त्रपूतेन वारिणा ॥ १३९ ॥ पद्मोत्पलानां किञ्जल्कः समंगा सनिदिग्धिका। शहचर्णस्य कुडवं प्रक्षिप्य विपचेत्पुनः । बिल्वं मोचरसंपाठाभागाः स्युः कार्षिकाः पृथक्१३, शनैः शनैस्तु मृद्वग्नौ यावत्सान्द्रतनुर्भवेत् ॥ १४०॥ चतुष्प्रस्थशृतं प्रस्थं कषायमवतारयेत् ।
। सर्जिकाया
सर्जिकायावशूकाभ्यां शुण्ठी मरिचपिप्पली । त्रिंशत्पलानि तु प्रस्थो विज्ञेयो द्विपलाधिकः ॥१३३/ वचा चातिविषा चैव हिंगुचित्रकयोस्तथा ॥१४१॥ सुनिषण्णकचाङ्गर्योः प्रस्थौ द्वौ स्वरसस्य च। एषां चूर्णानि निक्षिप्य पृथक्त्वेनाष्टमाषकम् । सँवरेतैर्यथोद्दिष्टघृतप्रस्थं विपाचयेत् ॥ १३४ ॥ दया संघट्टितं चापि स्थापयेदायसे घट । एतदर्शःस्वतीसारे त्रिदोषे रुधिरसुतौ ।
एष वह्निसमः क्षारः कीर्तितः काश्यपादिभिः॥१४॥ प्रवाहणे गुदभ्रंशे पिच्छासु विविधासु च ॥ १३५॥ अच्छे दिन तथा मुहूर्तमें मालाचरण आदि करके इतना उत्थाने चापि बहुशः शोथशूलगुदामये । काला मोखा लाकर जलाना चाहिये कि एक आढ़क अर्थात् मूत्रग्रहे मूढवाते मन्दानावरुचावपि ॥ १३६॥
तीन सेर १६ तोला भस्म तैयार हो जावे । फिर उस भस्मको प्रयोज्यं विधिवत्सर्पिबलवर्णाग्निवधनम् ।
एक द्रोण अर्थात् १२ सेर ६४ तोला जलमें पकाना चाहिये ।
चतुर्थांश शेष रहनेपर उतार कर कई बार छान लेना चाहिये । विविधेष्वन्नपानेषु केवलं वा निरत्ययम् ।। १३७ ।। फिर उस जलमें १६ तोला शंखकी भस्मका चूर्ण छोड़कर मन्द
सौंफ या सोवाके बीज, खरेंटीके बीज, दारुहल्दा, पिठिवन, आंचसे पकाना चाहिये, जब तक कि कुछ गाढ़ा न हो जाय । गोखरू, बरगद, गूलर, पीपलके नवीन अंकुर प्रत्येक ८ तोला, पुनः सजीखार, यवाखार, सोंठ, काली मिर्च, छोटी पीपल, ६ सेर ३२ तोला जलमें पकाना चाहिये । चतुर्थांश शेष रहनेपर दूधिया बच, अतीस, भुनी हींग, चीतकी जड़ प्रत्येकका चूर्ण उतारकर छान लेना चाहिये । फिर इतना ही पतियाका स्वरस ६ माशे ( वर्तमानतोलसे ) छोड़ कलछीसे चलाकर लोहपात्रमें
और इतना ही अमलोनियाका स्वरस तथा इतना ही धृत और रखना चाहिये। यह अग्निके समान तेज क्षार काश्यपादि इतनाही जल तथा नीचे लिखी ओषधियोंका कल्क छोड़कर घृत सिद्ध | महर्षियोंने बतलाया है ॥ १३८-१४१॥ करना चाहिये। कल्कद्रव्य-जीवंती,कुटकी, छोटीपीपल,पिपरामूल,
प्रतिसारिणीयक्षारविधिः। काली मिर्च, रसौत, देवदारु, इन्द्रयव, सेमरक फूल, शतावरी,|. लाल चन्दन, कायफल, चीतकी जड़, नागरमोथा, प्रियङ्गु, तोये कालकमुष्ककस्य विपचेद्भस्माढ षड्गुणे । अतीस, शालपर्णी, नील कमलका केशर, मीठ, छोटी कटेरी, पात्रे लोहमये दृढे विपुलधीर्दा शनैर्घट्टयन् । बेलगिरी, लाल कमल तथा मोचरस और पाढ प्रत्येक एक एक | दग्ध्वाग्नी बहुशतनाभिशकलान्पूतावशेषे क्षिपेतोला ले कल्क बना कर छोड़ना चाहिये । त्रिदाषज अतिसार, धोरण्डजनालमेष दहति क्षारो वरो वाक्शतात् ॥१४३ रक्तस्राव, प्रवाहिका, गुदभ्रंश, लासेदार दस्तोंका आना, बहुत | प्रायस्त्रिभागाशष्टेऽस्मिन्नच्छपैच्छिल्यरक्तता। दस्तोंका आना, सूजन, शूल, अश, मूत्रावरोध, वायुकी रुकावट, सजायते तदा स्राव्यं क्षाराम्भो ग्राह्यमिष्यते ॥१४४॥ मन्दाग्नि, अरुचि आदि रोगोंमें अनेक प्रकारक अन्न पाना देके तर्येणाष्टमकेन षोडशभवेनांशेन संव्यूहिमो । साथ अथवा केवल इस घृतका प्रयोग करना चाहिये १२९-१३७ मध्यः श्रेष्ठ इति क्रमेण विहितःक्षारोदकाच्छंखकः१४५ क्षारविधिः।
काले मोखाकी भस्म ३ सेर १६ तोला, जल षड्गुण छोड़प्रशस्तेऽहनि नक्षत्रे कृतमंगलपूर्वकम् ।
कर मजबूत लोहेकी कढ़ाईमें कल्छीसे धीरे धीरे चलाते हुए कालमुष्ककमाहृत्य दग्ध्वा भस्म समाहरेत् ॥१३८॥ पकाना चाहिये । तृतीयांश शेष रहनेपर उतार छान शंखकी
नाभिकी भस्म छोड़कर पुनः उस समय तक पकाना चाहिये १" चतुगुणं त्वष्टगुणं द्रवद्वैगुण्यतो भवेत् " इस परिभाषाके कि एरन्डनाल इसमें १०० मात्रा उच्चारण काल तक रखनेसे अनुसार यद्यपि ४ प्रस्थका प्रस्थ ही लिया जाता अर्थात् ३२ जल जाय । यह उत्तम क्षार होगा । प्रायः तृतीयांश पलका ही द्रवद्रव्यका प्रस्थ माना जाता है, फिर “त्रिंशत्पलानि क्षारजल रह जानेपर स्वच्छता, लालापन तथा लालिमा आतु प्रस्थो विज्ञयो द्विपलाधिकः " इससे सिद्ध होता है कि द्रव-जाती है। उस समय छानकर क्षारजल लेना चाहिये । क्षारोद्वैगुण्य कारक परिभाषा अनित्य है अर्थात् सब जगह नहीं लगती। दकसे चतुर्थाश, अष्टमांश, षोडशांश शंख भस्म छ उनसे पर कुछ आचायोंका मत है कि इसे शिष्योंके सुगम बोधार्थ क्रमशः संव्यूहिम ( अर्थात्-मृदु ) मध्यम तथा श्रेष्ठ क्षार ही लिखा है।
बनता है ॥ १४२-१४५॥