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धिकारः ] ·
भाषाटीकोपेतः ।
क्षारपाकनिश्चयः ।
नातिसान्द्रो नातितनुः क्षारपाक उदाहृतः । दुर्नामक दो निर्दिष्टः क्षारोऽयं प्रतिसारणः ॥ १४६॥ पानीयो यस्तु गुल्मादी तं वारानेकविंशतिम् । स्रावयेत्षड्गुणे तोये केचिदाहुचतुर्गुणे ॥ १४७ ॥ प्रतिसारण ( लगानेवाला ) क्षार न बहुत पतला न बहुत गाढ़ा पकाना चाहिये । अर्श आदिपर इसका प्रयोग होता है । पीनके योग्य जो गुल्मादि नाशार्थं क्षारं बनाया जाता है, उसमें भस्म षड्गुण या चतुर्गुण जलमें २१ वार छान ली जाती है ॥ १४६ ॥ १४७ ॥
क्षारसूत्रम् ।
वितं रजनी चूर्णैः स्नुहीक्षिीरे पुनः पुनः । बन्धनात्सुदृढं सूत्रं भिनत्त्यर्शो भगन्दरम् ॥१४८॥ हल्दी के चूर्णके साथ थूहरके दूधमें अनेक बार भावित सूत्र कसकर अर्शके ऊपर बांध देनेसे अर्श कटकर गिर जाता है ॥ १४८ ॥
क्षारपातनविधिः ।
प्राग्दक्षिणं ततो वामं पृष्ठजं च (प्रजं क्रमात् । पञ्चतिक्तेन संस्निह्य दहेत्क्षारेण वह्निना ॥ १४९ ॥ वातजं श्लेष्मजं चारों: क्षारेणास्रजपित्तजे । महान्ति तनुमूलानि छिन्त्वैव बलिनो दहेत् ॥ १५०॥ चर्मकील तथा छित्त्वा दहेदन्यतरेण वा । पक्कजम्बूपमो वर्णः क्षारदग्धः प्रशस्यते ॥ १५१ ॥ गोजीशेफालिकापत्रैरर्शः संलिख्य लेपयेत् । क्षारेण वाक्शतं तिष्ठेद्यन्त्रद्वारं पिधाय च ॥ १५२॥
१ क्षारविधि सुश्रुत तथा वाग्भटसे विस्तारपूर्वक समझनी चाहिये । यहां सामान्य वर्णन किया गया । पानीय क्षारमें विशेषता यह है कि कुछ आचार्यों का मत है कि चतुर्गुण या षड्गुण जलमें २१ बार छान लेनेसे ही पानीय क्षार तयार हो जाता पर कुछ आचार्यों का मत है कि भस्मको चतुगुण जलमें २१ बार छानकर छना हुआ जल कल्क सहित पकाना चाहिये, आधा बाकी रहनेपर कल्क पृथक् कर २१ बार छान लेना चाहिये । यही विधि विश्वामित्रने भी लिखी है । यथा - " पानाय भावनायाथ परिस्राव्यं
चतुर्गुणे । जले चार्घावशिष्टे च क्षाराम्भो ग्राह्यमिष्यते ॥ " पानीथक्षारकी मात्रा पल, तीन कर्ष, या अर्द्ध पलरूप श्रीशिवदासजीने लिखी है । पर आजकलके लिये यह भी अधिक है । आजकल ६ माशे १ तोला और २ तोले क्रमशः हीन मध्यम उत्तम मात्रा समझना चाहिये ।
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प्रथम दक्षिणसे क्षार कर्म या दाह प्रारम्भ करना चाहिये । प्रथम दक्षिण फिर वाम फिर पृष्ठवंशकी ओरका फिर अग्रभागके मस्सेको पश्ञ्चतिक्तघृतसे स्निग्ध कर क्षार अथवा अभिसे वातज या कफज अर्श दागना चाहिये । पित्तसे तथा रक्तसे बड़े हों और उनकी जड़ पतली हो, उन्हें शत्रुद्वारा काट उत्पन्न अर्श क्षारसे दग्ध करना चाहिये । पर जो मस्से कर ही जलाना चाहिये । तथा चर्मकीलको शखसे काटकर क्षार अथवा अग्निसे जला देना चाहिये । क्षारसे जला हुआ यदि पके जामुनके सदृश नीला हो जाय, तो उसे उत्तम समझना चाहिये । अर्शको गाजुवा या सम्भालू आदि किसी कर्कश पत्रसे खुरचकर यन्त्र लगा सलाईसे क्षार लेपकर १०० मात्रा उच्चारण कालतक यन्त्रको बन्द रखन चाहिये ॥ १४९ - १५२ ॥
क्षारेण सम्यग्दग्धस्य लक्षणम् ।
तं चापनीय वीक्षेत पैक्कजम्बूफलोपमम् । यदि च स्यात्ततो भद्रं नो चेल्लिम्पेत्तथा पुनः ॥ १५३ फिर उस यन्त्रको निकालकर देखना चाहिये । यदि पके जामुनके फलके समान हो गया हो, तो ठीक, अन्यथा फिर उसी प्रकार लेप करना चाहिये ॥ १५३ ॥
क्षारदग्ध उत्तरकर्म |
तत्तषाम्बुप्लुतं साज्यं यष्टीकल्केन लेपयेत् । सम्यग्दग्ध व्रणको भूसीयुत धानकी काजीसे सिंचित कर घी चुपर मौरेठीके कल्कका लेप करना चाहिये ।
अग्निदग्धलक्षणम् ।
न निम्नं तालवर्णाभं वह्रिदग्धं स्थितासृजम् ॥ सम्यग्दग्धमें नीचा नहीं होता तालके वर्णयुक्त अर्थात् मुलायम सफेदी लिये होता है और रक्त रुक जाता है ॥ १५४ ॥ अग्निदग्ध उत्तरकर्म | निर्वाय मधुसर्पि वह्निसञ्जातवेदनाम् । सम्यग्दग्धे तुगाक्षीरीप्लक्षचन्दनगैरिकैः ॥ १५५ ॥ सामृतेः सर्पिषा युक्तैरालेपं कारयेद्भिषक् । मुहूर्तमुपवेश्योऽसौ तोयपूर्णेऽथ भाजने ।। १५६ ।।
१ क्षारदग्ध सम्बन्ध में वाग्भटने लिखा हूं-" पक्कजम्ब्व सितं सन्नं सम्यग्दग्धं विपर्यये । ताम्रतातोदकण्ड्वाद्यैर्दुर्दग्धं त पुनर्दहेत् ॥ अतिदग्धे सवेद्रक्तं मूर्छादाहज्वरादयः । विशेषादत्र सेकोऽम्लैर्लेपो मधु घृतं तिलाः ॥ वातपित्तहरा चेष्टा सर्वैव शिशिरा क्रिया । आम्लो हि शीतः स्पर्शेन क्षारस्तेनोपसंहितः॥ यात्याशु, स्वादुतां तस्मादम्लैर्निर्वापयेत्तराम् ॥ "