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'चक्रदत्तः ।'
रोगोंको नष्ट करता है। यह 'गुड़ कल्याणक ' रोग, स्त्रीगमन तथा वृद्धावस्था होनेसे जो क्षीण हो गये हैं उनके लिये वाजीकर, बलदायक तथा वयःस्थापक है और वन्ध्यास्त्रियोंके गर्भ उत्पन्न करनेवाला है ॥ ७६-८४ ॥
सपर्पटी |
केलेके पत्तेके ऊपर ढ़ालकर दूसरे केलेके पत्तेसे ढ़क ऊपरसे गोबरसे ढककर कुछ देर रहने देना चाहिये । फिर घोटकर २ रत्ती की मात्रासे बढ़ाकर क्रमशः बारह रत्ती तक सेवन करना चाहिये | इसके खानेके १॥ घण्टे बाद सुपारी खूब खाना चाहिये, पुनः तीसरे दिन से मांस, घृत, दूध आदि सेवन करना चाहिये । जलन करनेवाले पदार्थ, स्त्रीगमन, केलाकी जड़, सरसोंका तेल, याम्लपित्ते विधातव्या गुडिका च क्षुधावती ॥ ८५ ॥ छोटी मछली तथा अन्य जलके समीपके पक्षी सेवन न करे । तत्र प्रोक्तविधा शुद्धौ समानी रसगन्धको । निद्राके अनन्तर दूधका सेवन करे । यह ' रसपर्पटी ' ग्रहणी, संम कज्जलाभं तु कुर्यात्पात्रे दृढाश्रये ॥ ८६ ॥ क्षय, कुष्ट, अर्श, शोष तथा अजीर्णको नष्ट करती है । इस सपर्पटीका चक्रपाणिने आविष्कार किया है ।। ८५-९१ ॥ ततो बादरवह्रिस्थलोहपात्रे द्रवीकृतम् । गोमय पर विन्यस्तकदलीपत्रपातनात् ॥ ८७ ॥ कुर्यात्पर्पटिकाकारमस्य रक्तिद्वयं क्रमात् । द्वादशरक्तिका यावत्प्रयोगः प्रहरार्धतः ॥ ८८ ॥ तदूर्ध्व बहुपूगस्य भक्षणं दिवसे पुनः । तृतीय एव मांसाज्यदुग्धान्यत्र विधीयते ॥ ८९ ॥ वर्ज्य विदाहिखीरम्भामूलं तैलं च सार्षपम् । क्षुद्रमत्स्याम्बुजखगांस्त्यक्त्वान्निद्रः पयः पिबेत् ॥९०॥ ग्रहणीक्षयकुष्ठार्शः शोषाजीर्णविनाशिनी ।
ताम्रयोगः ।
पर्पटिका ख्याता निबद्धा चक्रपाणिना ।। ९१ ॥
(४४ )
अम्ल पित्ताधिकारोक्त क्षुधावती गुटिकाकी विधिसे शुद्ध पारद व गन्धक समान भाग लेकर दृढ पात्रमें कज्जली करे, पुनः | ariat लकड़ीकी निर्धूम अग्निमें लोह पात्र रखकर कज्जलीको छोड़े, जब कज्जली पतली हो जावे, तो गोबरके ऊपर बिछे
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गुत्तमः ॥ ५ ॥ ग्रहणीं हन्ति शोषं च सुवर्णरसपर्पटी । सय बकरी शुक्रवर्द्धिनी वहिदीपनी ॥ ६ ॥ क्षयकासश्वासमे हशूलातीसारपः डुनुन् । ” इसमें नीज लिये है उससे वर्तमान वृद्ध वैद्योंका व्यवहार कुछ भिन्न है और वही उत्तम है। वह यह कि, प्रथम शुद्ध सोनेक वर्क एक तोला ४ तोला पारदकं साथ घोटना, फिर उसी में गन्धक मिलाकर कज्जली बनाना, शेष यथोक्त करना चाहिये ।
[ ग्रहण्य
स्थाल्यां संमद्ये दातव्यो माषिको रसगन्धको । नखक्षुण्णं तदुपरि तण्डुलीयं द्विमाषिकम् ॥ ९३ ॥ ततो नेपाल ताम्रादि पिधाय सुकरालितम् । पांशुना पूरयेदूर्ध्व सर्वा स्थालीं ततोऽनलः ॥९३॥ स्थाल्यो नालिका यावद्देयस्तेन मृतस्य च । ताम्री ताम्रस्य रक्त्येका त्रिफला चूर्णरचिका ||९४ || त्र्यूषणस्य च रक्त्येका विडंगस्य च तन्मधु । घृतेनालोडय लेढव्यं प्रथमे दिवसे ततः ॥ ९५ ॥ रक्तवृद्धि: प्रतिदिन कार्या ताम्रादिषु त्रिषु । स्थिरा विडंगरक्तिस्तु यदा भेदो विवक्षितः ||९६ ॥ तदा विडंगं त्वधिकं दद्याद्रतिद्वयं पुनः । द्वादशाहं योगवृद्धिस्ततो ह्रासक्रमोऽप्ययम् ॥९७॥ ग्रहणीमम्लपित्तं च क्षयं शूलं च सर्वदा । ताम्रयोगो जयत्येष बलवर्णाग्निवर्धनः ।। ९८ ।
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१ रसग्रन्थोंमें अनेक प्रकारकी पर्पटी लिखी गयी हैं, पर उनके लिखनेसे ग्रन्थ बहुत बढ़ जायगा, अतः उन्हें न लिखकर अत्यन्त प्रसिद्ध तथा गुणकारी सुवर्णपर्पटीको लिख दता हूँ :- शुद्धसूतं पलमितं तुर्याशस्वर्णसंयुतम् । मर्दयेन्निम्बुनीरेण यावदेकत्वमाप्नुयात् ॥ १ ॥ प्रक्षाल्योष्णाम्बुना पश्चात्पलमात्रे तु गन्धके । द्रुते लोहमये पात्रे बादरानलयोगतः ॥ २ ॥ प्रक्षिप्य चालयेल्लोह्यां मन्दं लोहशलाकया । ततः पाकं विदित्वा तु रम्भापत्रे शनैः क्षिपेत् ॥ ३ ॥ गोमयस्थे तदुपरि रम्भापत्रेण यन्त्रयेत् । शीतं तच्चूर्णितं गुञ्जा क्रमवृद्धं निषेवयेत् ॥ ४ ॥ माषमात्रं भवेद्यावत्ततो मात्रां न वर्धयेत् । सक्षौद्रेणोषणेनैव लेहयेद्भि
शुद्ध पारद १ माशा, शुद्ध गन्धक १ माशा दोनों को खरलमें घोट कजली मंडिया में छोड़ना चाहिये, उसके ऊपर महीन पिसी चौराईका चूर्ण दो माशा छोड़कर ऊपरसे कण्टकवेधी ताम्रपत्र १५ माशेकी कटोरी बन्दकर ऊपरसे दूसरी कटोरीसे ढ़क सन्धिबन्दकर देना चाहिये, ऊपरसे बालू भर देना चाहिये, फिर मंडिया चूल्हेपर चढ़ाकर नीचे अग्नि जलाना चाहिये, एक घण्टातक आंच देना चाहिये, इस प्रकार सिद्ध की गयी तो भस्म १ रत्ती, त्रिफला चूर्ण
१ इसमें परद गन्धककी कज्जली २ मासे छोड़ना चाहिये तथा मात्रा की लिखी है, पर यह अधिक है, वर्तमान समय में आधी रतीस ही बढ़ना उम है । ताम्र भस्मकी अनेक विधियां हैं, उन्हें रसप्रन्थोंस जानना चाहिये । पर यहां के लिये जितना आवश्यक है, श्रीमान् चक्रपाणिजीने स्वयं लिख दिया है । विषय बढ़ाने की आवश्यकता नहीं ।