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धिकारः] भाषाटीकोपेतः।
(४७) -
- - चार तोलाकी मात्रा पीनेसे अर्श नष्ट हो जाता है, तथा ग्रहणी, सोंठ १२ तोला, काली मिर्च ४ तोला, छोटी पीपल पाण्डुरोगोंको भी नष्ट कर मल व वायुकी शुद्धता, अग्निकी ८ तोला, चव्य ४ तोला, तालीशपत्र ४ तोला, नागकेशर दीप्ति तथा अरुचिको नष्ट करता है। इसे 'दन्त्यरिष्ट ' कहते २ तोला, पिपरामल ८ तोला, तेजपात ६ माशे, छोटी हैं । धायके फूल तथा पठानीलोधसे लेप किये पात्रमें आरष्टादि इलायची १ तोला, दालचीनी ६ माशे, खश ६ माशे, सन्धान करना चाहिये ॥२३-२६ ॥
गुड़ १॥ सेर-सब एकमें मिलाकर १ तोलाकी गोली बनाना
चाहिये। इसे “प्राणदा वटी" कहते हैं। इसे भोजनके प्रथम तथा - नागरायो मोदकः।
अनन्तर बलके अनुसार सेवन करना चाहिये । ऊपरसे मद्य, सनागरारुष्कर वृद्धदारुकं
मांसरस, यूष, दूध अथवा जल पीना चाहिये । इससे सहज, गुडेन यो मोदकमत्त्युदारकम् ।
रक्तज तथा दोषज समस्त बवासीर नष्ट होते हैं । मदात्यय, अशेषदुनामकरोगदारकं
मूत्रकृच्छ, वातरोग, स्वरभेद, विषमज्वर, मन्दाग्नि, पाण्डु
रोग, क्रिमिरोग, हृदोग, गुल्म, शूल, श्वास, तथा काससे करोति वृद्धं सहसैव दारकम् ।। २७ ॥
पीडित मनुष्योंके लिये यह अमृतके तुल्य लाभदायक होती सोंठ, शुद्ध भिलावां तथा विधायरा तीनोंको गुड़के साथ
है ।पित्तजन्य अर्शमें सोंठके स्थानमें बड़ी हर्रका छिल्का गोली बना सेवन करनेसे समस्त अर्श नष्ट होते हैं । तथा शरीर
| इसमें छोड़ना चाहिये । “ इस प्राणदा वटी " को गुड़के स्थानमें वलवान होता है ॥ २७ ॥
चूर्णमानसे चतुर्गुण मिश्री छोड़ बनाकर अम्लपित्त तथा अग्निमुडमानम् ।
मांद्य आदिमें प्रयोग करना चाहिये । श्लेष्मजरोगमें अनुपान
१ पल, वातजन्यमें २ पल तथा पित्तजन्यमें ३ पल सेवन चूर्णे चूर्णसमी ज्ञेयो मोदके द्विगुणो गुडः। . करना चाहिये ॥ २८-३७ ॥
गुड़ चूर्णमें चूर्णके समान तथा गोलियोंमें चूर्णसे दूना | छोड़ना चाहिये ॥२८॥
कांकायनगुटिका। प्राणदा गुटिका।
पथ्यापञ्चपलान्येकमजाज्या मरिचस्य च ॥ ३८॥ त्रिपलं शृङ्गवेरस्य चतुर्थ मरिचस्य च ।। २८ ॥
पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागराः। पिप्पल्याः कुडवार्धं च चव्यायाः पलमेव च।।
पलाभिवृद्धाः क्रमशो यवाक्षरपलद्वयम् ॥ ३९ ॥ तालीशपत्रस्य पलं पलाध केशरस्य च ॥ २९ ॥
भल्लातकपलान्यष्टौ कन्दस्तु द्विगुणो मतः । द्वे पले पिप्पलीमूलादर्धकर्ष च पत्रकात् ।
द्विगुणेन गुडेनेषां वटकानक्षसंमितान् ॥ ४० ॥
कृत्वेनं भक्षयेत्प्रातस्तक्रमम्भोऽनु वा पिबेत् । सूक्ष्मैलाकर्षमेकं तु कर्ष च त्वङ्मृणालयोः ॥३०॥ गुडात्पलानि तु त्रिंशच्चूर्णमेकत्र कारयेत् ।
मन्दाग्निं दीपयत्येषा ग्रहणीपाण्डुरोगनुत् ॥४१॥
कांकायनेन शिष्येभ्यः शस्त्रक्षाराग्निभिर्विना । अक्षप्रमाणा गुटिका प्राणदेति च सा स्मृता॥३१॥ पूर्व भक्ष्याऽथ पश्चाच भोजनस्य यथाबलम्।।
मिषग्जितमिति प्रोक्तं श्रेष्ठमोविकारिणाम् ॥४२॥ मद्यं मांसरसं यूषं क्षीरं तोयं पिबेदनु ॥३२॥ | हरै २० तोला, जीरा सफेद ४ तोला, काली मिर्च ४ तोला, णि सहजान्यस्रजानि च।
छोटी पीपल ४ तोला, पिपरामूल ८ तोला, चव्य १२ तोला, वातपित्तकफोत्थानि सन्निपातोद्भवानि च ॥ ३३ ।।।
चीतकी जड़ १६ तोला, सोंठ २० तोला, यवाखार ८ तोला,
भिलावा ३२ तोला, जमीकन्द २४ तोला, सबका चूर्ण बनाकर पानात्यये मूत्रकृच्छ्रे वातरोगे गलग्रहे।
द्विगुण गुड़से गोली १ तोलेके बराबर बनाना चाहिये । प्रातःविषमज्वरे च मन्देऽमी पाण्डुरोगे तथैव च ॥३४॥ काल १ गोली खाके ऊपरसे मट्ठा या जल पीना चाहिये । यह क्रिमिहद्रोगिणां चैव गुल्मशूलार्तिनां तथा।
गोली मन्दाग्निको दीप्त करती है, ग्रहणी तथा पांडुरोगको नष्ट श्वासकासपरीतानामेषा स्यादमृतोपमा ॥ ३५ ॥ करती है । कांकायनने यह गोली शस्त्रक्षारादिके बिना अर्शके शुण्ठयाः स्थानेऽभया देया विड्महे पित्तपायुजे । प्राणदेयं सितां दत्त्वा चूर्णमानाच्चतुर्गुणाम् ॥ ३६॥ १ ग्रन्थान्तरमें इसीको चाशनी बनाकर गोली बनाना लिखा अम्लपित्तामिमान्द्यादी प्रयोज्या गुदजातुरे। है। यथा वाग्भट:-"पक्त्वैनं गुटिका कार्या गुडेन सितयापि अनुपानं प्रयोक्तव्यं व्याधी श्लेष्मभवे पलम् ॥३७॥ वा । परं हि वहिसंयोगालघिमानं भजन्ति ताः ।" विभिन्न । पलद्वयं त्वनिलजे पित्तजे तु पलत्रयम् । ग्रन्थों में यह योग पाठभेदसे लिखा है।
हन्यात
जान च।