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धिकारः ]
भाषाकपेतः ।
कामलाज्वरपाण्डुत्वमेहारुच्यतिसारनुत् । गुडयोगाद् गुडाम्बु स्याद् गुडवर्णरसान्वितम् २०॥ चिरायता, कुटकी, त्रिकटु, नागरमोथा, इन्द्रयव, समान भाग, चीतकी जड़ दो भाग, कुड़ेकी छाल सोलह भाग लेकर चूर्ण बनावे | गुड़ मिले ठण्ढे जलके साथ पीने से यह चूर्ण ग्रहणीरोग तथा गुल्मको नष्ट करता है । कामला, ज्वर, पांडुरोग, प्रमेह, अरुचि, अतीसारको नष्ट करता है। गुड़ मिलाकर मीठा बनाया गया जल 66 " गुडाम्बु जाता है । १८-२० ॥
कहा
कफग्रहण्याश्चिकित्सा |
ग्रहण्यां श्लेष्मदुष्टायां वभितस्य यथाविधि । कट्वम्ललवणक्षारैस्तीक्ष्णैश्चाग्निं विवर्धयेत् ॥
२१ ॥
ग्रहणी में विधिपूर्वक वमन कराकर तीक्ष्ण, कटु, अम्ल, लवण, क्षार, पदार्थों से अनि दीप्त करना चाहिये ॥ २१ ॥
ग्रन्थिकादिचूर्णम् ।
मूलां पिप्पलीं क्षारौ द्वौ पञ्च लवणानि च । मातुलुंगाभयारास्नाशठीमरिचनागरम् ॥ २२ ॥ कृत्वा समांशं तच्चूर्ण पिबेत्प्रातः सुखाम्बुना । लैष्मि ग्रहणदोषे बलवर्णाग्निवर्द्धनम् ॥ २३ ॥ ऐतेरेवौषधैः सिद्धं सर्पिः पेयं समारुते । पीपल छोटी, पिपरामूल, यवाखार, सज्जीखार, पांचों नमक, बिजौरे निम्बूकी ज़ड़, बड़ी हर्रका छिलका, रासन, कचूर, काली मिर्च, सोंठ – सब समान भाग ले चूर्ण बनाकर कुछ गर्म जलके साथ सेवन करनेसे कफजन्य ग्रहणीरोग नष्ट होता है, बल, वर्ण तथा अग्निकी वृद्धि होती है । इन्हीं औषधियोंद्वारा सिद्ध किया घृत वातग्रहणीको नष्ट करता है ॥ २२ ॥ २३॥-
भल्लातकक्षारः ।
भल्लातकं त्रिकटुकं त्रिफला लवणत्रयम् ॥ २४ ॥ अन्तर्धूमं द्विपलिकं गोपुरीषाभिना दहेत् । सक्षारः सर्पिषा पेयो भोज्ये वाऽप्यवचारितः ॥ २५ ॥ हृत्पाण्डुग्रहणी दोषगुल्मोदावर्तशूलनुत् ।
( ३९ )
सन्निपातग्रहणीचिकित्सा ।
सर्वजायां प्रहण्यां तु सामान्यो विधिरिष्यते ॥ २६॥ सन्निपातज ग्रहणी में सामान्य चिकित्सा करनी चाहिये ॥ २६ ॥
'द्विगुणोत्तरचूर्णम् ।
चूर्ण मरिच महौषध कुटजत्वक्संभवं क्रमाद् द्विगुणम् । गुडमिश्रमथितपीतं ग्रहणीदोषापहं ख्यातम् ॥ २७॥
काली मिर्च, सोंठ, कुडेकी छाल क्रमशः एककी अपेक्षा दूसरा द्विगुणले चूर्ण बनावे | इसे गुड़ मिला विना मक्खन निकाले मथे हुए दही के साथ पीनेसे ग्रहणीदोष नष्ट होता हैं ॥ २७ ॥
पाठादिचूर्णम् ।
पाठाबिल्वानलव्योषजम्बूदाडिमघातकी । कटुकातिविषामुस्तदार्वी भूनिम्बवत्सकैः ॥ २८ ॥ सर्वैरेतैः समं चूर्ण कौटजं तण्डुलाम्बुना । सक्षौद्रं च पिबेच्छर्दिज्वरातीसारशूलवान् ॥ २९ ॥ तृड्दाग्रहणीदोषारोचकानलसाद जित् ।
पाढ़, वेलका गूदा, चीतेकी जड़, सोंठ, मिर्च, छोटी पीपल, जामुनकी गुठली, अनारका छिल्का, धायके फूल, कुटकी, अतीस, मोथा, दारूहल्दी, चिरायता, कुड़ेकी छाल-इन सबको समान भाग ले सबके समान इन्द्रयव ले कूट कपड़े छानकर शहद तथा चावलके जलके साथ सेवन करने से वमन, ज्वर, अतीसार, शूल, तृषा, दाह, ग्रहणीदोष, अरोचक तथा मन्दाग्नि नष्ट होती है ॥ २८ ॥ २९॥
कपित्थाष्टक चूर्णम् ।
यवानीपिप्पलीमूलचातुर्जातकनागरैः ॥ ३० ॥ मरिचानिजलाजाजीधान्यसौवर्चलैः समैः । वृक्षाम्लधातकी कृष्णा बिल्वदाडिमतिन्दुकैः ॥ ३१॥ त्रिगुणैः षड्गुणसितैः कपित्थाष्टगुणैः कृतः । चूर्णोऽतिसार ग्रहणीक्षयगुल्मगलामयान् ॥ ३२ ॥ कासं श्वास रुचि हिक्कां कपित्थाष्टमिदं जयेत् ।
१ यहां पर " षड्गुणसितैः " के अर्थ करनेमें अनेक प्रका
भिलावा, सोंठ, मिर्च, पीपल, आमला, हर्ड, बहेड़ा, सेंधानमक, कालानमक, सामुदनमक प्रत्येक ८ तोले भंडिया में रकी शंकायें करते हैं । प्रथम यह कि यवान्यादि समस्त द्रव्यों से बन्दकर गाय के गोबरके कण्डोंकी आंचसे जलाना चाहिये । पुनः षड्गुण । दूसरी यह कि वृक्षाम्लादिसे षड्गुण । जैसा कि अरु महीन पीस छानकर घीके साथ पीने अथवा भोजनमें प्रयोग | णदत्तने वाग्भट टीका में लिखा है । तीसरी यह कि कपित्थसे करनेसे हृद्रोग, पाण्डुरोग, प्रहणीदोष, गुल्म, उदावर्त तथा षड्गुण । पर यह समग्र मत अव्यावहारिक हैं । अतः उपरोक लको नष्ट करता है ॥ २४ ॥ २५ ॥ - नियमसे ही छोड़ना चाहिये ॥