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(२२) चक्रदत्तः।.
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rg यह “पिप्पल्यादि" चतुर्गुण दूध मिलाकर भी पकाना किसी
क्षीरषट्पलकं घृतम् । किसी ग्रन्थमें लिखा है ॥ २३६-२३८ ॥
पञ्चकोलेः ससिन्धूत्थः पलिकैः पयसा समम् । यत्राधिकरणेनोक्तिर्गणे स्यात्स्नेहसंविधौ ॥ २३९॥
सर्पिःप्रस्थं शृतं प्लीहविषमज्वरगुल्मनुत् ॥२४५ ॥ तत्रैव कल्कनि!हाविष्येते स्नेहवेदिना ।
अत्र द्रवान्तरानुक्तेःक्षीरमेव चतुर्गुणम् । एतद्वाक्यबलेनैव कल्कसाध्यपरं घृतम् ॥ २४०॥
द्रवान्तरेण योगे हि क्षीर स्नेहसमं भवेत् ॥२४६॥ स्नेह सिद्ध करनेके लिये जिस गणमें अधिकार अर्थात्
पञ्चकोल ( छोटी पीपल, पिपरामूल, चव्य, चीतकी जड़, निश्चय कर दिया गया है, वहीं कल्क तथा क्वाथ दोनों छोड़े
सोंठ ) तथा सेंधानमक प्रत्येक एक एक पैल, घृत एक प्रस्थ जाते हैं, इस वाक्यके बलसे ही घृत कल्क साध्य माना,
दूध ४ प्रस्थ मिलाकर पकाना चाहिये । घृतमात्र शेष रहनेपर जाता है ॥ २३९ ॥२४० ॥
| उतार छानकर पिलाना चाहिये । यह घृत प्लीहा, विषमज्वर तथा जलस्नेहोषधानां तु प्रमाणं यत्र नेरितम् । गुल्मको नष्ट करता है । यहां दूसरे द्रव द्रव्यके न कहनेसे दूध ही तत्र स्यादौषधात्स्नेहः स्नेहात्तोयं चतुर्गुणम्॥२४१॥ चतुर्गुण छोड़ना चाहिये । तथा स्नेहके लिये चतुर्गुण जल भी
छोड़ना चाहिये । जहां पर दूसरे द्रव द्रव्यका वर्णन हो, वहां दूध । जहां पर जल औषध तथा स्नेहका प्रमाण नहीं बताया गया, स्नेहके समान ही लेना चाहिये ॥२४५॥२४६ ॥ वहां औषधसे चतुर्गुण स्नेह तथा स्नेहसे चतुर्गुण जल छोडना चाहिये । यहां 'जल' द्रवमात्रका उपलक्षण है ॥ २४१॥
दशमूलषट्पलकं घृतम्। अनुक्ते द्रवकार्ये तु सर्वत्र सलिलं मतम् ।।
जहां द्रव द्रव्यका निर्देश नहीं किया गया, वहां जल ही) दशमूलीरसे सर्पिः सक्षीरे पञ्चकोलकैः ॥२४७ ॥ छोड़ना चाहिये।
सक्षारैर्हन्ति तत्सिद्धं ज्वरकासाग्निमन्दताः। घृततेलगुडादींश्च नैकाहादवतारयेत् ॥ ५४२॥ ।
| वातपित्तकफव्याधीन्प्लीहानं चापि पाण्डुताम्२४८ व्युषितास्तुप्रकुर्वन्ति विशेषेण गुणान्यतः॥. दूध तथा दशमूलके क्वाथमें पञ्चकोल तथा यवाखारके
घी, तैल तथा गुड आदि एक ही दिनमें नहीं पकाना | साथ सिद्ध किया घृत ज्वर, कास, अभिमान्द्य, वातकफ, पित्तचाहिये, क्योंकि बासी रक्खे गये (कई दिनमें पकाये गये ) रोग, पांडुरोग तथा प्लीहाको नष्ट करता है ॥ २४७ ॥ २४८ ॥ विशेष गुण करते हैं ॥ २४२ ॥
स्नेहे काथ्यादिनियामिका परिभाषा । . सिद्धस्नेहपरीक्षा।
काथ्याच्चतुर्गुणं वारि पादस्थं स्याश्चतुर्गुणम् । स्नेहकल्को यदाङ्गुल्या वर्तितो वर्तिवद्भवेत्। । स्नेहात्स्नेहसमं क्षीरं कल्कस्तु स्नेहपादिकः ।।२४९॥ वही क्षिप्ते चनो शब्दस्तदा सिद्धिं विनिर्दिशेत्२४३/ चतुर्गुणं त्वष्टगुणं द्रवद्वैगुण्यतो भवेत् । शब्दस्योपरमे प्राप्त फेनस्योपरमे तथा।
पञ्चप्रभृति यत्र स्युर्दैवाणि स्नेहसंविधौ ॥ २५० ॥ गन्धवर्णरसादीनां सम्पत्ती सिद्धिमादिशेत्॥२४४॥ तत्र स्नेहसमान्याहुरर्वाक् च स्याश्चतुर्गुणम् । (घतस्यैवं विपक्वस्य जानीयात्कुशलो भिषक् । ।
क्वाथ्यद्रव्यसे चतुर्गुण जल छोड़कर क्वाथ बनाना, चतुर्थांश फेनोतिमानं तैलस्य शेषं घृतवदादिशेत् ॥ १॥) शेष रहनेपर उतार छान क्वाथसे चतुर्थांश घृत मिलाकर पकाना जिस समय अंगुलीसे रगड़नेसे स्नेह कल्ककी बत्ती बनने चाहिये । स्नेहमें दूध स्नेहके बराबर छोड़ना चाहिये । कल्क लगे तथा अग्निमें छोड़नेसे शब्द न हो तथा स्नेहमें शब्द न हो | स्नेहसे चतुशि छोड़ना चाहिये । द्रवद्वैगुण्यके सिद्धान्तसे चतुर्गुण और फेना शान्त होगया हा तथा गन्ध, वर्ण और रस उत्तम अष्टगुण होता है। हो गया हो, उस समय घृत सिद्ध जानना चाहिये । इसी प्रकार तैल सिद्ध जानना चाहिये । पर तैलम सिद्ध हो जानेपर १ पूर्वोक्त परिभाषानुसार सुश्रतमानसे पल वर्तमान मानके ३ फेना अधिक उठता है, शेष लक्षण सिद्ध घृतके समान तोला ४ माशेके बराबर, उसी प्रकार प्रस्थ वर्तमान १० छ. ३ होते हैं ॥ २४३ ॥ २४४ ॥
| तोला ४ माशेके बराबर होता है और चरकमानसे पल ६
तोला ८ माशाका, तदनुसार प्रस्थ १ सेर ५ छ. १ तोला ८ वचित्पुस्तके कोष्ठान्तगर्तः पाठो न दृश्यते ।
माशेका होता है । और द्रवद्रव्य होनेसे द्विगुण कर दिया जाता है।