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धिकारः] भाषाटीकापतः।
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- - दैवव्यपाश्रयं कर्म ।
हैं-पर लंघन करनेसे यदि वायुका वेग अधिक हो तो मात्रा व गंगाया उत्तरे कूले अपुत्रस्तापसो मृतः ।
|कालका निश्चयकर वैद्य उन्हें भी देवे ॥ २३३-२३५॥ तस्मै तिलोदके दत्ते मुञ्चत्यकाहिको ज्वरः ॥२२७॥
पिप्पल्यायं घृतम् । एतन्मंत्रेण चाश्वत्थपत्रहस्तः प्रतर्पयेत् ॥ २२८॥ ।
पिप्पल्यश्चन्दनं मुस्तमुशीरं कटुरोहिणी। पीपलका पत्र हाथमें लेकर ''गंगाथा उत्तरे कूले अपुत्र- कलिंगकास्तामलकी शारिवातिविषे स्थिरा ॥२३६ स्तापसो मृतः । तस्मै तिलोदकं नमः स्वधा " इस मन्त्रसे तर्पण | द्राक्षामलकबिल्वानि त्रायमाणा निदिग्धिका । करनेसे एकाहिक ज्वर छोड़ देता है ॥ २२७ ॥ २२८॥ सिद्धमेतैघृतं सद्यो ज्वरं जीर्णमपोहति ॥ २३७ ।। सोमं सानुचरं देवं समातृगणमीश्वरम् ॥
क्षयं कासं शिरः शूलं पाश्वेशूलं हलीमकम् । पूजयन्प्रयतः शीघ्रं मुच्यते विषमज्वरात् ॥ २२९॥ अङ्गाभितापमग्निं च विषमं सन्नियच्छति ॥२३८॥ विष्णुं सहस्रमूर्धानं चराचरपतिं विभुम् ।
पिप्पल्याद्यमिदं क्वापि तन्त्रे क्षीरेण पच्यते । स्तुवन्नामसहस्रेण ज्वरान्सर्वान्व्यपोहति ॥ २३० ॥ पीपल छोटी, चंदन लाल,नागरमोथा, खश, कुटकी, इंद्रयव,
उमासहित तथा अनुचरों व मातृगणसहित शंकरजीका | भुइ आमला, शारिवा, अतीस, शालिपर्णी, मुनका, आमला, नियमसे पूजन करनेसे विषमज्वर छूट जाता है । इसी प्रकार | बेलका गूदा, त्रायमाण, छोटी कटेरी-इनके कल्कसे चतुर्गुण घृत सर्वव्यापक, विराटस्वरूप, चराचरस्वामी विष्णु भगवानकी सहस्र और घृतसे चतुर्गुण जल मिलाकर सिद्ध किया घृत शीघ्र है नामसे स्तुति करनेवाला विषमज्वरसे मुक्त होजाता है२२९॥२३० जीर्ण ज्वरको नष्ट करता है । तथा क्षय, कास, शिरःशुल, पार्श्वसर्पिष्पानावस्था।
शूल, हलीमक, शरीरकी जलन तथा विषमानिको नष्ट करता है। ज्वराः कषायैर्वमनैर्लघनलघुभोजनैः।
१यहां' हलीमकम् ' के स्थानमें ' अरोचकम् ' भी पाठारूक्षस्य ये न शाम्यन्ति सर्पिस्तेषां भिषग्जितम२३१/.
न्तर है । तथा यहांपर घृतका मान नहीं लिखा, अतः जो ज्वर कषाय, अवलेहादि तथा वमन, विरेचन, लंघन, Ind
“ अनिर्दिष्टप्रमाणानां स्नेहानां प्रस्थ इष्यते । अनुक्ते क्वाथमाने स्वेदन तथा लघुभोजनसे नहीं शांत होते और शरीर रूक्ष हो
तु पात्रमेकं प्रशस्यते " इस सामान्यपरिभाषासे १ प्रस्थ घृत जाता है, उनकी उत्तम चिकित्सा घृत है ॥ २३१ ॥
लेना चाहिये ।अथवा मान निर्देश न करनेका यह भी आभिप्राय सर्पिनिषेधः।
है कि जितने घृतसे लाभ होनेकी सम्भावना हो, उतना धृत निर्दशाहमपि ज्ञात्वा कफोत्तरमलंधितम् ।। बनावे । तथा यहां पर यद्यपि चक्रपाणिज.ने तथा शिवदासजीने न सर्पिः पाययेत्प्राज्ञः शमनेस्तमुपाचरेत् ॥२३२॥ घृतमूर्छनके सम्बन्धमें कुछ नहीं लिखा, पर सामान्य नियम यही दर्श दिन बीत जानेपर भी जिसका कफ बढ़ा हुआ हो तथा है कि स्नेह मूर्छित करके ही पाक करना चाहिये ।अतःघृतमूर्छनकी लंघनके गुण उत्पन्न न हुए हों, उसे घृत न पिलाना चाहिये | विधि नीचे लिखी जाती है " पथ्याधात्रीविभीतैर्जलधररजनीकिन्तु शमनकारक उपाय करना चाहिये ॥ २३२॥ मातुलगवैश्च द्रव्यैरेतैः समस्तैः पलकपारमितमंदमंदानलेन । निर्दशाहे कफोत्तरे शमनमशनम् ।
आज्यप्रस्थं विफेनं परिपचनगतं मूर्छयेद्वैद्यवर्यस्तस्मादामोपदोषं
हरति च सकलं वीर्यवत्सौख्यदायि ॥ (भैषज्यरत्नावली) ॥ छोटी यावल्लघुत्वादशनं दद्यान्मांसरसेन तु ।
हर्र, आमला, बहेड़ा, नागरमोथा, हल्दी प्रत्येक ४ तोलाका मांसार्थमेणलावादीन्युक्त्या दद्याद्विचक्षणः ॥ २३३
कल्क तथा बिजौरे नीम्बूका रस ४ तोला छोड़कर, घी १ प्रस्थ कुक्कुटांश्च मयूरांश्च तित्तिारं क्रौञ्चमेव च ।
(द्रवद्वैगुण्यात् २ प्रस्थ बंगालका ४ सेर तथा ८० तोलेके सेरसे गुरूष्णत्वान्न शंसन्ति ज्वरे केचिचिकित्सकाः॥२३४१ सेर ९ छ. ३ तो०) का मूर्छन करना चाहिये । मूर्छनके लंघनेनानिलबलं ज्वरे यद्यधिकं भवेत् । | लिये पहिले घी गरम करना चाहिये, जब घी पककरके फेन रहित भिषक मात्राविकल्पज्ञो दद्यात्तानपि कालवितू२३५ होजाय, तब उतार ठण्ढाकर उपरोक कल्कादि छोड़ना चाहिये,
जब तक ज्वर तथा शरीर हल्का न हो, तब तक हल्का पथ्य फिर घीसे चौगुना जल छोड़ पाक कर छान लेना चाहिये । तथा मांसरसके साथ देना चाहिये । मांसके लिये एणमृग अथवा | जहाँ केवल दूधसे ही घृत पाक लिखा है, वहां घृतसे चतुर्गुण लवा देना चाहिये । ज्वरमें कुछ वैद्य कुक्कुट, मयूर, तीहर तथा जलभी छोड़ना चाहिये, तथा कल्क घृतसे अष्टमांश ही छोड़ना क्रौञ्चको देना उष्ण तथा भारी होनके कारण अनुचित समझते चाहिये । यथा शार्ङ्गधरः-" दुग्धे दनि रसे तके कल्को देयोऽ
टमांशकः । कल्कस्य सम्यक्पांकार्थे तोयमत्र चतुगुणम् " किन्तु १ सामान्यतः दश दिनके अनंतर घी पिलाना लिखा है । यह समग्र परिभाषायें प्रायः अनित्य हो जाती हैं, अतः व्यवस्था यह उसका निषेध है। .
वैद्यको स्वयं विचारकर करनी चाहिये।