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धिकारः ]
प्रrोग करना चाहिये । अभ्यङ्गादिसे त्वचामें प्राप्त ज्वर नष्ट हो जाता है, शरीरको सुख मिलता है, बल तथा वर्ण उत्तम होता द्वै ॥ २६७ ॥ २६८ ॥
भाषाको पैतः ।
षट्कदवरतैलम् ।
सुवर्चिकानागरकुष्ठमूर्वालाक्षा निशालोहितयष्टिकाभिः । तेलं ज्वरे षड्गुणकट्वसिद्धमभ्यञ्जनाच्छीत विदाहनुत्स्यात् ॥ दध्नः ससारकस्यात्र तक्रं कट्वरमिष्यते । घृतवत्तैलपाकोऽपि तैले फेनोऽधिकः परः ॥२७०॥
सज्जीखार, सौंठ, कूठ, मूर्वा, लाख, हलदी तथा मंजीठ ककसे चतुर्गुण तिलेका तैल तथा तैलसे षड्गुण महा मिलाकर पकाया गया तैल शीत तथा जलनको नष्ट करता है । मक्खनके सहित मथे गये दधिको ही ' कट्वर' कहते हैं । धीके समान ही तैलका भी पाक होता है । पर घीके पक जानेपर फेना नष्ट हो जाता है और तैलके पक जानेपर फेना उत्पन्न हो जाता है ॥ २६९ ॥ २७० ॥
१ यहां पर तिलतैलकी मूर्च्छा विधि भी नहीं लिखी है, अतः प्रतीत होता है कि श्रीमान् चक्रपाणिको मूर्च्छनकी आव श्यकता नहीं प्रतीत हुई, अतएव उनके अनुयायी श्रीयुत शिवदासजी ने भी अपनी तत्त्वचन्द्रिका नामक टीकामें नहीं किया । पर आजकल वङ्गदेशीय वैद्य विशेषकर मूर्च्छनकी आवश्यकता समझते हैं, अतः तिलतैलमूर्छा लिखी जाती है-“ कृत्वा तैलं कटाहे दृढतरविमले मन्दमन्दानलैस्तत् तैलं निष्फेनभावं गतमिह च यदा शैत्ययुक्तं तदैव । मञ्जिष्ठारात्रिलोधैर्जलधरनालकैः सामलैः साक्षपथ्यैः, सूचीपत्रांघ्रिनीरैरुपहितमथितैर्गन्धयोगं जहाति ॥ १ ॥ तैलस्येन्दुकलां शिकैक विकसाभागोऽपि मूर्छाविधौ, ये चान्ये त्रिफलापयोदरजनीहीबेरलोधान्विताः । सूचीपुष्पवटाव
(२५)
अंगारकतैलम् ।
मूर्वा लाक्षा हरिद्रे द्वे मञ्जिष्ठा सेन्द्रवारुणी । बृहती सैन्धवं कुष्ठं रास्ना मांसी शतावरी || २७१ ।। आरनालाढकेनैव तैलप्रस्थं विपाचयेत् । तैलमंगारकं नाम सर्वज्वरविमोक्षणम् ॥ २७२ ॥
मूर्वा, लाख, हलदी, दारुहलदी, मजीठ, इन्द्रायण, बड़ी कटेरी, सेंधानमक, कूठ, रासन, जटामांसी तथा शतावरीका कल्क १ कुड़व, तिलतैल १ प्रस्थ, कांजी १ आढक मिलाकर |पकाना चाहिये । तैलमात्र शेष रहनेपर उतार छान मालिश करनेसे ज्वर नष्ट होता है ।। २७१ ॥ २७२ ॥
लाक्षादितैलम् ।
लाक्षाहरिद्रामञ्जिष्ठा कल्कैस्तैलं विपाचयेत् । षड्गुणेनारनालेन दाहशीतज्वरापहम् ॥ २७३ ॥ उससे षड्गुण काजी मिलाकर पकाना चाहिये । यह तैल मालिश लाख, हल्दी व मञ्जीठका कल्क उससे चतुर्गुण तिलतैल और करनेसे जलन तथा शीतसहित ज्वरको नष्ट करता है ॥ २७३ ॥
यवचूर्णादितैलम् ।
यवचूर्णाकुडवं मञ्जिष्ठार्धपलेन तु । तैलप्रस्थः शतगुणे काञ्जिके साधितो जयेत् ॥ २७४ ज्वरं दाहं महावेगभंगानां च प्रहर्षनुत् ॥
यवका चूर्ण ८ तोला, मञ्जीठ २ तोला, तैल १ प्रस्थ (१ सेर तेल मात्र शेष रहनेपर उतार छानकर रखना चाहिये । यह तैल ९छ० ३ तो० ) काञ्जी १०० प्रस्थ मिलाकर पकाना चाहिये । महावेगयुक्त ज्वर, दाह तथा शीत दोनोंको नष्ट करता है॥२७४॥
सर्जादितैलम् ।
सर्जकाञ्जिकसंसिद्धं तैलं शीताम्बुमर्दितम् ॥ २७५ ॥ ज्वरदाहापहं लेपात्सद्योवातास्रदाहनुत् ॥
राल तथा कासे सिद्ध किया गया तैल ठण्डे जलमें मर्दन
नष्ट करता है ॥ २७५ ॥
रोहनलिकास्तस्याश्च पादांशिका, दुर्गन्धं विनिहत्य तैलमरुणं | कर लेप करनेसे तत्काल ज्वरके दाह तथा वातरक्तके दाहको सौरभ्यमाकुर्वते ॥ २ ॥ ” तिलतैलको कड़ाही में छोड़कर मन्द आंचपर उस समयतक पकावे, जबतक कि फेन जाता है । फिर उसे ठण्डा कर प्रथम तैलसे षोडशांश ने मजीठका कल्क छोड़ना चाहिये । फिर अन्य त्रिफला, नागरमोथा, हलदी, सुगन्धवाला, लोध्र, केवड़े की जड़, वटजटा तथा नाड़ीशाक प्रत्येक मजीठसे चतुथांश ले कल्क कर छोड़ना चाहिये । फिर तैलसे चतुर्गुण जल छोड़ पकाकर छान लेना चाहिये । इस प्रकार मूर्छा कर लेनेसे तैलकी दुर्गन्ध मिट जाती और सुगन्ध आ जाती तथा तैल ईषद्रक्त वर्ण हो जाता है ।
तैलान्तरम् ।
चन्दनाद्यमगुर्वाद्यं तैलं चरककीर्तितम् ॥ २७६ ॥ तथा नारायणं तैलं जीर्णज्वरहरं परम् ॥ चन्दनादितैल, अगुर्वाद्यतैल तथा नारायणतैलका प्रयोग जीर्णज्वरनाशनार्थ करना चाहिये ॥ २७६ ॥ -
आगन्तुक ज्वरचिकित्सा ।
अभिघातज्वरो न स्यात्पानाभ्यङ्गेन सर्पिषः॥ २७७॥