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मिश्चय मे तत्पर रहने वाले अर्थात् आमा का अनामद करने वाले साध लोक
ही जिनेन्द्रिय कहते है । जो इम्मियों को वश में करके अपने ज्ञानादि गगगों से परपूर्ण अपनी आत्मा का ही अनुभव वारता है ।
यकर्ता द्रवद्रि- 'भावेन्द्रिय पननेन्द्रिय विष गन् जित्वा शुद्ध ज्ञान चेनाना ग नेनाधिक परिपूर्ण गद्धात्मानं मन्तं जानात्वनुभवनि सचेतति । तं पुरुष बल स्फुटं जितेन्द्रियं भर्गान्त ते सायब: यो त ? निश्चयज्ञा ।
म. सा. जयसेनाचार्य । त.. गा. ३६
जी जीव द्रघंद्रिय-भावेन्द्रिय रुप पञ्चेद्रियों के पित्रों को जोतकर शुद्यमान चेतना गण से परिपूर्ण अपने शुखात्मा को मानता है, जानता. अनभव करता है। संतन करता है अति शुद्धास्मास समय होकर रहता है. उस पुरुष को ही निश्चय नय के जानने वाले साध लोग जितेन्द्रिय कहते हैं।
यः पुरुष उदयाननं मोहं सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रे काग्रयरुप 'नविकल्प समाधि लेन जिचा शनातगुणेनाधिक गांपूर्ण मान्मानं मनुते जानानि भावप्रति । तं साधं जितमोह रहितमोह परमार्थ विज्ञायया बुवन्ति कथयतीति ।
(स. सा. जयमेनाचार्यत, मा. ३६)
जो रुप प्यमे आये हुये मोह को सम्बग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, मम्याचारित्र इन तीनों की एकाग्रता रुप निर्विकल्प समाधि के बल से जीतकर । अर्थाद दवाकर पा द्धनान गण के द्वारा अधिक अर्थात् परिपूर्ण अपनी आत्म को माना है, जानता है, और अन पत्र करता है उस साधु को परमार्थ के जाननेवाले । जिन मोह अर्थात् मोह से रहित जिन, इस प्रकार कहते है।
आचार्य ज्ञानमागर जी का हिन्धि टीका से उद्धन)
उपरोक्त आगम प्रमाण से यह सिद्ध होता है कि वोवल शास्त्र-शास्त्र कण्ठस्थ करने से अध्ययन-अध्यापन करने से उपदेश देने से, शास्त्री की रचना एवं दीका करने से अथवा आत्म तत्त्व (निश्चय नय) का वर्णन करने से कोई निश्च । ज्ञ नहीं हो सकता। किन्तु जब भव्य सम्पादृष्टी जीय संमानशरीर भोगों से विरक्त होकर अन्तरंग-बहिरंग परिग्रह को त्याग कर पञ्चेद्रिय विषम कषाय को जाकर परिषद उपसर्ग को सहन कर, कयायों का क्षय या उपशम करके. समस्त संकल्प-विकल्प से दूर होकर निर्विकल्प समाधि के मा प्रम में स्त्र युद्धात्मा को जानता है, मानता है, भावना करता है, वही निश्चया हं अन्य नहीं । अर्थात् सातिशय सप्तम गुणस्थानवर्ती से ऊपर के