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प्राप्त न होकर उसकी प्राप्ति के लिये निविकाल्प समाधि में लगता है यह उपर्युक्त कार्यसमयसार का सम्पादक होने में के रण समयसार कहलाता है। जो सब प्रकार आरंभ परिग्रह आदि से रहित होकर अपनी शुद्धात्मा को अनुभूति लिय हमें रहता है अतः उसके राग-द्वेषादि रहित शुद्ध ज्ञानमय भाव ही होता है। किन्तु जो समाधि से च्युत होकार अशद्ध होता है । अत: उसका भाव उस समय अज्ञानमय होता है ऐसा आचार्य का कहना है ।
म सा. आचार्य ज्ञा सागर हिदी टी । का विशंधार्थ : गा. ५३२
'' आदा तावद् कत्ता सो होनि गादच्या नावकालं परमसमाधे मायाल म चाज्ञानी जोत्र. कर्मणा बारकी भवतीति ज्ञातव्यः"
तब तक परम समाधि के न होने में यह जीव अजाना होता है जो की कमों का कम वाला होता है ऐसा समझना चाहिये ।। निविकार स्वसवेशन लक्षणे भेद ज्ञाने स्थित्वा भावना कार्येति तामेव भावना वृदयति । यथा को 5 प राज सेवक पुरुषो राजशभिः सह समग कुणि. सन् राजाराधको न भवति तथा परमात्मा 5 राधक पुरुषस्तत्प्रतिपक्षभूत मिथ्यात्व रागादिभिः परिणममानः परमात्माधिको न भवतीति भावार्थः ।
समयसार । त. वृ गा २०-२१-२२ निविकार स्वसंवेदन हैं लक्षण जिप्तका से भेद ज्ञान में निमग्न होकर भाधना करनी चाहिये । इसी बात को फिर दृढ करते है कि जैसे कोई राज पुरुष भी राजा के शशू ओं के साथ संसर्ग रखता है तो वह रजा का आराधक नहीं कहला सकता । उसी प्रकार परमात्मा की आराधना करने आला पुरुष आत्मा की प्रतिपक्षभूत जो मिथ्यात्य व रागादि भाव : उन रुप परिणमन करने वाला होता है तब वह परमात्मा का आराधक नहीं हो सकता यह इसका निचोड ! तात्पर्य ) हैं।
जिरा प्रकार आत्मा से इतर पदार्थों में अहका खिने वाले को भी अप्रतिवद्ध बतलाया है उसी प्रकार उन म मम पर रखने वाला को भी अप्रतिबद्ध बताते हुये उन । ब से दुर हटकर ओवल निविकल्प समाधि में स्थिन होने वाले जीव को ही प्रतिबद्ध, ज्ञ नी एवं सम्यगदृष्टि कहा है।
आचार्य ज्ञानसागरजी की हिन्दी टीका से उद्धृत निश्चयज्ञ कौन
जा इन्दिये जिणित्ता पाणसहायाधिय मुदि आदि । त खल जिदिदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साह ।।
मग यसार गा. ३६ में क्षेपक : कतीकर्माधिकार