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जसका विधवा मशा पदा नहीं है। उसके लिये शास्त्र कोई कार्यकारी नहीं हैं। जैसे दुष्टि रहित अंध के लिये दर्पण कोई कार्यकरी नहीं हैं । अर्थात दृष्टि शक्ति विना मनुष्य स्वच्छ दर्पण में भी अपना मुख नहीं देख पाता है उसी प्रकार हिताहित विवेक रहित मनुष्य भी शास्त्र से अपन आत्मस्वरुप को प्राप्त नहीं कर पाता है।
विद्या वित्रादाय धन मदाय शक्ति परेषा परपीडमाय ।
बलस्य साक्षोविपरीतमेतद् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ।।
खक दुर्जन व्यक्ति विद्या प्राप्त करके बिवाद करता हैं धन प्राप्त करको मदोन्मत्त हाता है, शक्ति प्राप्त कर के दूसरों को पीडा देता है, परतु साधु धर्मात्मा पृरुप विद्या प्राप्त करके हिताहित विवेक बित ज्ञानी बनता है, दान प्राप्त करके दान देता है, एवं शक्ति गप्त करके दूसरों की रक्षा करता है । जैसे अग्नि के द्वग भोजन तयार करके उससे शरीर की पुष्टि कर सकते हैं, और अग्नि को शरीर के ऊपर डालकर नष्ट भी कर सकते है। उसी प्रकार शास्त्र के माध्यम से आत्म विशुद्ध करने से शास्त्र, शास्त्र है अन्यथा वह शस्त्र है अति स्वयं काही घातक भी हैं।
" अज्ञानिना निर्विकल्पसमाधि स्रष्टानां । " जो निर्विकल्प समाधि से भ्रष्ट है अर्थात निविकल्प समाधि म स्थिर नहीं हैं वह अज्ञानी है । और जो निविकल्प समाधि में स्थित है वह ज्ञानी है।
_ निर्विकल्प समाधि परिणाम परिणत कारक समयसार लक्षणेन भेद ज्ञानेन सर्वारभापरिणतत्याजज्ञानिनो जीवस्य एवात्मप्रतीति संविस्युपलब्धनभूति रुपेण ज्ञानमय एव भवति । अजानिनस्तु पूर्वोक्त भेदज्ञानाभावात् शुद्धात्मानुभूति स्वरुपाभावे सत्यज्ञानमय एव भवतीत्यर्थः ।
जयसेनाचार्य । त. वृ ! गा. १३४ निर्विकल्प समाधिरुप परिणाम से परिणतर हने वाला जो कारण समयसार हैं लक्षण जिसका उस पेदज्ञान के द्वारा सभी प्रकार के आरंभ से रहित होने के कारण ज्ञानी जीव का वह भाव शुखात्मा की ख्याति प्रतीति, सवित्ति, उपलब्धि, या अनुभूति रुप से ज्ञानमय ही होता है । किन्तु अज्ञानी जीव को पूर्वोवत अदनान न होने से सुद्धामा की अनुभुति स्वरूप का अभाव होने से उसका वह भाव अज्ञातमय होता हैं ।
___ जो आत्मा अनंतमान, दर्शन, अनंत सुख और अनंत धीर्य रुप चतृष्टय को प्राप्त है वह कार्य समयसार कहलाता है। किन्तु जो अनंत चतुष्टय को