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शास्त्र और ज्ञान एक नहीं है क्यों कि पास्त्र कुछ भी नहीं जानता है। वह तो जड है। इसलिये ज्ञान भिन्न वस्तु है और शास्त्र उससे भिन्न वस्तु है ऐसा जिन भगवान कहते है ।
शब्द भी ज्ञान नहीं है क्यों कि शब्द कुछ नहीं जानता है। इसलिन ज्ञान अन्य है और शब्द अन्य है। और शब्द उससे भिन्न वस्तु है ऐगा जिन भगवान कहते है।
पुस्तकें न विद्या परहस्तेषु यदधनम् । उत्पम्नेषु च कार्येषु न सा विद्या न तद्धनम् ।।
चाणक्यनीति र्पण । इला. २७ जो विद्या कण्ठ में न रह कर पुस्तक में लिखी पडी है। जो धन अपने हाथ में न रहकर पराये हाथ में पड़ा है अतएव आवश्यकता पड़ने पर अपने काम नहीं आ सकती, बह विद्या न विद्या है और न वह धन, धन ही है !
जैसे एक कृषि विद्या में स्नात्तकोत्तर उत्तीर्ण होकर भी कृषि काय करने में अर्थात हल चलाने में, मिट्टी खोदने में, मिट्टी डाने आदि में असमर्थ भी हो सकता है। परंतु जो कृषक है जिसने कृषि विद्या संबधी विशेष आक्षरीक अध्ययम भी नहीं किया यह कृषि कार्य दक्ष होकर करता है। उसी प्रकार केवल शास्त्रज्ञ भी आत्मतत्त्व से, आत्म भावना से, धर्म- कम से दान पजादि कर्तव्यों के पालन करने में असमर्थ भी हो सकता है, और परामुख भी हो सकता है । उसी प्रकार अक्षरज्ञ पंडित के लिये वह शास्त्र विमेष कार्यकारी नहीं है । परंतु जो विशेष शास्त्रज्ञ नहीं है किन्तु आचरण मे धर्म को लाता है वह कृतकार्य हो सकता है। जैसे कि प्रथमानुयोग में शिवभूति, भीमसेन जैसे अनेक अक्षर ज्ञान से अनभिज्ञ मोक्ष को प्राप्त किये मिलते है। तथा ग्यारह अंग पाठी भी अपने कुकृत्यों से अधोगति-दुर्गति को प्राप्त हुये । जैसे केवल भोजन करने मात्र से शाक्ति वृद्धि नहीं होती है । भोजन यथार्थ पाचन से ही शक्ति वृद्धि होती है। उसी प्रकार शास्त्र को आत्मसात करके तदनकूल आचरण करने से ही आत्मविशुद्धि होती है। जैसे भोजन नहीं पचाने से उससे रोग ही बढता है उसी प्रकार शास्त्र को भी नहीं पचाने पर अर्थात आचरण में नहीं लाने पर वह भी अपाय आहार के समान अपत्य का अति विष का कार्य करता है।
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम । लोचनाभ्यां बिहीनस्य दर्पणं किं करिष्यति ।।
- - नीति वाक्य