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मोह से भिन्न पुद्गलमय ठहरे और तब पुद्गल की बात से हिंसा नहीं हो सकती हैं और राग-द्वेष-मोह से बध नहीं हो सकता है इस प्रकार परमार्थ से ससार और मोक्ष दोनों का अभाव हो जायेगा ऐसा एकान्ताप वस्तु का स्दा नहीं है । अवम्त का ४ान, ज्ञान और आचरण मिथ्या अवस्त रुप ही है इस लिये व्यवहार का उपदेश न्याय प्राप्त है । इस प्रकार स्थाद्वाद से दोनों नयों का विरोध रहित श्रद्धान करना सम्यक्त्व हैं ।
५ जयचन्द्रीकृत हिन्दी टीका समयसार की दृष्टि में ज्ञानी व अज्ञानी.
यद्यपि सम्यग्दर्शन होते के बाद आगम अपेक्षा सम्यग्दृष्टि जीत्र ज्ञानी है, परंतु अध्यात्मिक दृष्टि अर्थात समयसार दृष्टि से सम्पुर्ण पचेंद्रिय जनित विषध भोगों से रहित सम्पूर्ण संकल्प-विकल्प से रहित अंतरग बहिरंग परिग्रह रहित निर्विकल्प इयान स्थित महामुनि ही ज्ञानी है उसमे अतिरिक्त उस अवस्था से हित नीचे-नोचे के गुणस्थानवर्ती जीव अज्ञानी है, क्यों कि जो शद्धात्मानुभूती रूप निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञान, अनुभूति कप आत्मानंद का आस्वादन पूर्ण रूप से नहीं कर पाता है। यथायोग्य विषय कषाय पर पदार्थ में अनुरंजित होने के कारण वह अज्ञानी है । समयसार बाम शास्त्रीय ज्ञान को कोई प्रकार महत्व नहीं देता है अर्थात ज्ञानी नहीं मानता है।
पंडिय-पंरिय-पष्टिया कणु छडि कि तुरा कडिया । अत्थे गथे तृदठोसि परमस्थ ण जाहि मूढो सि ।।
पाहुद दोहा मुनि रामसिंह हे शब्द-अर्थ ग्रंथ से मंतष्ट को प्राप्त करने वाला परित! तु परमार्थ झा निना केवल मत है, अज्ञानी है, मिथ्य दृष्टि है। जैसे काण -हित तस की कटने पर उससे विशेष लाभ नहीं होता उसी प्रकार तू ने परमार्थ रहस्य को जाने बिना केवल शब्द ग्रन्थमे संतष्ट होकर ग य.ए दकर लचकदार भाषा से भाषण करके, पर मनोरंजन करके भी तूने कुछ विशेष लाभ प्राप्त नहीं कर पाया । कारण कि शब्द, अन्य में परमार्थ तत्त्व, धर्म अथवा अध्यात्मिक नहीं है वह केवल सूचना मात्र है। जैसे किसी रोगी ने औषधी का नाम लिखे हुए कागज को सेवन करने स उस रोग दूर नहीं होता हैं उसी प्रकार शास्म कण्ठस्थ करने से भवराग दूर नहीं होता है । जैस चित्रित कए से जल प्राप्त नहीं होता है एक प्यास भी नहीं बुझता है । चित्रित मिष्ठान्न व भोजन स जिन्हा को स्वाद नहीं मिलता है एवं पंट नही भारता है। जैसे मां बेटे को हाथ की अंगुली से पन्द्र को संकेत करती हे, दिखाती