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श्री अष्ट प्रकार पूजा - ॥ ६ ॥
दूनिय देख कर व्याख्यान में जाना बंद करा दिया और गुरुशी जी से प्रार्थना की कि अाप व्याख्यान न करें। आपने L कहा भाजा देना न देना तुम्हारा काम है। हम अपना कर्तव्य धर्मोपदेश बंद नहीं करेंगे। गहबाईने लोक लज्जा का त्याग । कर पुरुष समुदाय में बिठना प्रारंभ कर दिया, अन्त में आपने पार्श्वनाथ जी की प्रतिमा को कोलरी मुहल्ले के मंदिर में मूलनायक रूप में स्थापन करवाया और भैंरूबाग में दादा साहब (श्री जिनकुशल मूरि जी) की छतरी बनवा कर धरण स्थापन किये।
बम दोनों धर्म कार्यों ने मानो श्रापके अन्तराय कर्म दूर कर दो मास में ही प्रासादिला दी। आपको अत्यन्त हर्ष हुबा और गुरुपी महाराज को ठहरने की प्रार्थना की "जैसा भाव प्राणी रखता है वैसा ही फल मिलता है" इस वचन के अनुसार विक्रम सं०९८५७ वैशाख सुदी १२ को शुभ मुहूर्त में आपने दीक्षा ली और मानन्द पूर्वक गुरु कृपा से महाव्रत पालने लगी। आपने दीक्षा के अनन्तर १४ चीमामे किये। जिनमें कई चौमासे गुरणी जी के साथ और कई अपने शिष्याओं के साथ किये। वृद्धावस्था के कारया जोधपुर में आपके चौमासे अधिक हुए।
विविजन
अब अन्तमें यहां ही(जोधपुर में)धर्म पानार्थ विराजमान हैं। आपकी शिष्य सम्पदा भी बढ़ गई है। हमको श्रीमती । । गुरुणी जो साहिबा का जितना चरित्र उपलब्ध हुपा है उतना संक्षेप से दिया है, विशेष के लिये प्रयत्न किया जा रहा है। L॥६॥
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