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मैं रुक गया । बहुल ब्राह्मण की ओर उन्मुख हो देखा : श्रीफल-कलश दोनों हाथों में थामे वह विनत हो आया है। उसकी आँखों से आँसू बह रहे हैं। उसकी समर्पिति मेरे हृदय को स्पर्श कर गई । एक सुन्दर चाँदी की चौकी वहाँ अतिथि के पड़गाहन को प्रस्तुत थी। मैंने उस पर पगधारण किया। पूजा-आरती संजोये गृह-बधुएं सम्मुख आयीं। मैं उनकी ओर बढ़ गया। झूलती आरतियों के बीच अविलम्ब राह बनाता हुआ भवन द्वार में प्रवेश कर गया।
भीतर के चौके में निःशब्द अतिथियों का एक भारी समुदाय एकत्रित था। उनकी एकाग्र प्रणतियों के प्रति मैं सहज ही नम्रीभूत हो आया।
' बैठने के लिये बिछाये गये स्वर्ण-रत्न के आसन को भिक्षुक ने नहीं स्वीकारा। उसे लाँघ कर खड़े-खड़े ही, भिक्षा के लिये अपने दोनों हाथों को अंजुरिबद्ध कर पाणि-पात्र पसार दिया। बहुल ब्राह्मण ने पयस का कुम्भ उठाकर भिक्षुक के पाणि-पात्र में डाला। अन्तरिक्ष में से केशर और फूल बरसने लगे। वसुधारा की वृष्टि होने लगी । कोटि-कोटि सुवर्ण-रत्न बरस कर माटी में मिलने लगे । जयकारें गूंज उठीं। · तीन ग्रास पयस ग्रहण कर भिक्षुक ने हाथ खींच लिये । बहुल ने उसका अंग-प्रक्षालन कर, उज्ज्वल वस्त्रों से पोछा । . . . भिक्षुक ने उद्बोधन का हाथ उठा दिया।· · अगले ही क्षण वह चारों ओर उमड़ते जन-समूह के बीच से राह बनाता हुआ, कोल्लाग ग्राम के जनपथ को पार गया । ..
दायें हाथ में मयूर-पिच्छिका और बायें हाथ में कमण्डलु झाले अविराम विहार कर रहा हूँ। वन के वृक्ष, नदी, पर्वत, चारों ओर छितरी बस्तियाँ, पनघट, खेत-खलिहान सभी तो मेरे साथ चल रहे हैं । नितान्त एकाकी हो गया हूँ : इसीसे अकारण ही सब का संग-साथ पा गया हूँ। 'चरैवेति · · ·चरैवेति': यही मेरी एक मात्र जीवनचर्या है । यही मेरा स्वभाव है, धर्म है। भीतर का निरन्तर आत्मपरिणमन ही, बाहर निर्वाध विचरण बन गया है। सब के पास जाने को निकला हूँ : अकारण ही सबको पाने और अपनाने चला है। पर देखता हूँ अपने ही एकाग्र पंथ पर निश्चल भाव से चला चल रहा हूँ : और ये सब स्वयम ही मेरे पास चले आ रहे हैं। मुझे कृतार्थ कर रहे हैं।
नहीं जानता, कहाँ जाना है, क्या करना है । बस चले चलना है, चले चलना है : चलते ही चले जाना है। दिशा और काल का कोई बोध, अपने से भिन्न नहीं रह गया है । स्वयम् ही अपनी दिशा हो गया हूँ : स्वयम् ही अपना समय हो गया हूँ। अपने से चल कर, अपने तक पहुँचने की इस यात्रा में बाहर का समस्त लोक
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