Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02 Author(s): Virendrakumar Jain Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan SamitiPage 17
________________ 9 नीभूत हो आये । 'ठीक तभी वे पास ही चरते बैल, दौड़ कर मेरी ओर आये, और मुझे चारों ओर से घेर कर मेरा कवच हो रहे । वे मेरी देह से हौले-हौले रभस करने लगे । 'ग्वाला अपनी जगह, स्तंभित खड़ा देखता रह गया । .. कण्ठ से प्रार्थना कर उठा : 'हाय, मैं अन्धा हो गया था, स्वामी । अरे तुम कितने सुन्दर, सुकुमार हो । जान पड़ता है कोई देवों के ऋषि हो । पा गया, पा गया, पहचान गया पहचान गया । राजर्षि वर्द्धमान कुमार ! जय हो प्रभु, जय हो, क्षमा करें नाथ, मुझ अज्ञानी को ।' • वह विगलित मैंने आश्वासक मुद्रा में हाथ उठा दिया । पता नहीं कितनी देर वह मेरे पैरों में भूमिष्ठ हो, जाने क्या-क्या कहता रहा, करता रहा । मेरी देह अपने में सिमट कर, जाने कब मेरी अन्तर्तम चेतना में विश्रब्ध हो गई थी ।... 'हठात् मेरे मन के मुद्रित कपाट पर जैसे एक कोमल हो आई बिजली की उँगली ने दस्तक दी। मैं अनायास ही बहिर्मुख हुआ । सुनाई पड़ा : 'प्रभु, आपका चिर किंकर सौधर्म इन्द्र सेवा में प्रस्तुत है ''' 'हूँ !' मेरी चुप्पी से ध्वनित हुआ । 'देवायं की यह दारुण तपस्या कितने काल चलेगी, सो कौन कह सकता है ! जानता हूँ, इस अवधि में प्रकृति की समस्त प्रतिकूल शक्तियाँ एकत्र होकर प्रभु की राह में जाने कितने ही भयंकर उपसर्ग उपस्थित करेंगी । पद-पद पर अन्तहीन बाधाएँ आयेंगी । आज्ञा दें नाथ, कि इस काल में सदा सर्वत्र मैं आपके संग विचरूँ, और आने वाले हर उपसर्ग का निवारण करूँ ।' मेरी नीरवता और भी गहरी हो गई। मेरे श्वास तक निस्पंद हो गये । और इन्द्र को जाने किस अगोचर से उत्तर सुनाई पड़ा : Jain Educationa International 'शकेन्द्र, तुम्हारे भक्तिभाव से भावित हुआ । पर जानो स्वर्गपति, जो सारे बन्धन त्याग कर पूर्ण निर्बन्धन होने को निकल पड़ा है, वह कोई नया बन्धन कैसे स्वीकारे ? परम स्वाधीनता - लाभ की इस यात्रा में, पराधीन होकर कैसे चल सकता हूँ । कर्म चक्र का निर्दलन अरिहन्त अकेले ही करते हैं । अपने बाँधे कर्म - बन्धन को काटने में दूसरे की सहाय सम्भव नहीं । अरिहन्तों ने पर सहाय न कभी स्वीकारी, न स्वीकारते हैं, न कभी स्वीकारेंगे । सर्वजयी जिनेन्द्र अपने ही वीर्य के बल केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, अपने ही वीर्य के बल मोक्षलाभ करते हैं ।' For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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