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'जय हो वर्द्धमान कुमार की ! जय हो दीन-दरिद्र, अनाथों के नाथ की !'
वह जैसे वहाँ पीछे छूट गये एक चरण-युगल को अपनी अँगुलियों में कस कर पकड़े, पड़ा रह गया । पर मैं उससे पहले ही अपने पन्थ पर गतिमान था ।
एक प्रहर दिन शेष रहते मैं कूर्मार याम के प्रान्तर में आ पहुँचा। सीमान्त के एक सुरम्य वनप्रदेश में आकर, चहुँ ओर निहारा । दूर पर ग्राम-घरों के पीली माटी के पिछवाड़े दीख रहे हैं। उनके खपरैलों पर और चारों ओर के पेड़ों पर अपरान्ह की कोमल पड़ती धूप ढल रही है।
· · 'एकाएक नाभिपद्म के ऊपर जैसे एक सुखद गुलाबी ज्वाला उठती अनुभव हुई। जठराग्नि है यह : क्षुधा की मधुर तपन । मैंने मित्रभाव से उसका स्वागत किया। दमन नहीं किया उसका : तिरस्कार नहीं किया उसका। लोक की इस जीवनी-शक्ति का निरादर कैसे कर सकता हूँ । मन ही मन कहा : ओ मेरी भगवती आत्मा : इस क्षुधा में भी तुम्हीं तो अवरूढ़ हो कर व्यक्त हुई हो । तुम्हारे अतिरिक्त तो और कुछ कहीं देखता नहीं मैं । अवरूढ़ होकर, हे चिति -माँ, तुम्ही विभाविनी हो गई हो : जगत के आविर्भाव के लिये । आरूढ़ होकर तुम्हीं आत्म-स्वरूप में अवस्थित होती हो । लो माँ, तुम्हारे यज्ञ की इस लौ में अपनी इस सप्त धातुमयी देह की आहुति प्रदान करता हूँ । स्वीकारो । · · ·और जाने कब वह ज्वाला अन्तर्लुप्त हो गई । मैं एक अद्भुत तृप्ति में मगन हो रहा। ___ और प्रलम्ब-बाहु, अन्तःस्थ होकर, मैं समर्पित भाव से कायोत्सर्ग में लीन हो गया । अपने अन्तरासन पर अविचल रह कर, नासाग्र दृष्टि से बाहर के सर्व के प्रति भी, विमुख नहीं, सहज ही उन्मुख हो रहा। जहाँ भी, जो . कुछ भी हो रहा है, उसके अन्तर-बाह्य का केवल साक्षी।
कुछ देर बाद देखा, एक ग्वाला अपने बैलों को लेकर वहाँ आया। मुझे खड़े देख वह आश्वस्त हुआ। उसने सोचा, मेरे बैल इन साधु पुरुष के निकट सुरक्षित ही रहेंगे । ये भले ही यहाँ चरते रहें, तब तक मैं गाँव में जाकर अपनी गायें दुह आऊँ । और वह चला गया।
बैल चरते-चरते दूर निकल गये । और जाने कब किसी अटवी-प्रदेश में प्रवेश कर गये। जो होता है, उसे देखता हूँ। इससे बड़ी निगरानी और क्या हो सकती
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