Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 16
________________ है। सो बैलों का चरना-विचरना और वन में विलुप्त हो जाना, मैं सम भाव से देखता ही रह गया । . . बहुत देर बाद ग्वाला लौट कर आया। देखा कि बैल वहाँ नहीं हैं। उसने मुझसे पूछा : 'कहाँ गये मेरे बैल ?' मुझे तो कुछ कहना नहीं था : जहाँ गये, वहाँ ठीक ही तो गये हैं। उसमें मेरा क्या दखल है। मेरी चुप्पी से ग्वाला कुछ क्षुब्ध दीखा । फिर वह अपने बैलों की खोज में निकल पड़ा ! • • • मैंने रात-भर उसे वनखण्ड में परेशान भटकते देखा। दिशाओं के छोरों तक उसे बैलों का कोई चिह्न नहीं दीखा। सबेरे थका-हारा वह फिर मेरे निकट आया । मैं ठीक उसी स्थल पर प्रतिमायोग में अविचल आत्मस्थ था। और उसके बैल मेरे समीप ही कहीं खड़े शान्त भाव से चर रहे थे। तृप्तिपूर्वक जुगाली कर रहे थे । ग्वाला क्रोध से भभक उठा। · · निश्चय ही इस सधुक्कड़े ने मेरे बैलों को कहीं छुपा दिया था । पाखंडी कहीं का, चोर ! साधुवेश धर कर चोरी करने की नयी विद्या निकाली है इसने । 'अरे ओ दुष्ट तस्कर, धूर्त ! साधु का भेष धर कर गौधन चुराने निकला है ? . . . तुझे सब पता था, फिर बताया क्यों नहीं ? मन में जो कपट था तेरे, ओ नंगे. • • !' ____ मैं चुप ही रहा । बोल कर तो बात को उलझाया ही जा सकता है। मौन ही मौन मैंने कहा : ___ 'शान्त बन्धु, बैलों को जहाँ जाना था गये। लौट कर ठीक समय पर, ठीक जगह वे आ गये। मैं कौन होता हूँ, उन्हें भगाने वाला, उन्हें रोकने वाला, लौटाने वाला !' विचित्र हुआ कि ग्वाले ने सुन ली मेरी वह नीरव भाषा भी। क्रोध से उबल कर उसने अपने बैल बाँधने के रस्से को दोहरा-तिहरा किया। फिर उससे वह मेरे शरीर पर बार-बार प्रहार करने लगा । चोटें ऐसी कुछ मुक्तिकर लगी, कि जैसे देह में पड़ी जाने कितनी पुरानी गाँठे खुल रही हैं । मैंने उस गोप बन्धु का मन ही मन बहुत उपकार माना । कृतज्ञ हुआ उसका। मार तले भी मुझे मौन, निश्चल देख वह और भी उत्तेजित होकर मुझे अपने रस्से से बांधने को उद्यत हुआ । मैंने कोई प्रतिरोध न किया । मेरे सारे अंगांग रोमांचित होकर, डालियाँ हिला कर स्वागत करते झाड़ की तरह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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