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जोबन को परख
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बुढ़ापा आ गया तो फिर इस जीवन की रक्षा नहीं हो सकेगी। ऐसा समझ कर भी जो असावधान या प्रमादी बनकर हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है, अपने जीवन का यथार्थ उद्देश्य समझ कर उसे सम्यक्प से बिताने का पुरुषार्थ नहीं करता, वह बेचारा कैसे जीवन का शुद्ध रूप पा सकता है ?
बहुत-से लोग कहा करते हैं हम जीवन के यथार्थ उद्देश्य के अनुसार चलना तो चाहते हैं, पर शरीर साथ नहीं देता। कुछ लोग इन्द्रियों की शिकायत लेकर आते हैं कि आँख नहीं मानती, कान हमारे वश में नहीं रहता, जीभ हमारे काबू में नहीं है, हाथ-पैर हमारे कहे अनुसार नहीं चलते । अधिकांश लोगों की यह शिकायत रहती है कि तप, जप, नियम, व्रत, साधना आदि करने को बहुत ही जी करता है, पर क्या करें, हमारा मन इधर-उधर दौड़ता रहता है। वह संयम में नहीं रहता है। उसे इनमें लगाएँ तो लगता नहीं है। चंचल होकर विषयों या कषायों में भागदौड़ करता रहता है । यही सबसे बड़ी मुसीबत है। यही तो जीवन की सबसे बड़ी कमजोरी है कि शरीर, मन, हृदय, इन्द्रियाँ, बुद्धि आदि सब आपकी आज्ञा में नहीं चलते, उलटे ये आपको अपनी आज्ञा में चलाना चाहते हैं। इसका मतलब है-आप अपने जीवन के सम्राट नहीं हैं। आप पर इनका आधिपत्य है। आपको अपने जीवन का सम्राट बना दिया गया है, किन्तु आप सम्राट बन जाने पर भी इन सबसे डरते हैं। आप अपने गुलामों से, अपने परिचारकों से डरकर, दब कर चलते हैं। ऐसी स्थिति में आप सोचिए कि किस मूल्य पर आप अपने जीवन में आनन्द से रहना चाहते हैं ? क्या बाह्य पदार्थों या शरीर आदि के गुलाम बनकर आप जीवन का सच्चा सुख प्राप्त कर सकते हैं या इनको अपनी अधीनता में रखकर ? बस, यही विवेक आपको गौतमकुलक ग्रन्थ के माध्यम से करना है। अगर आप अपने जीवन के शाहंशाह हैं तो आपको जीवन का सच्चा आनन्द आना चाहिए, अन्यथा, आप जीवन के शाहंशाह होते हुए भी इनके गुलाम-से रहते हैं तो आनन्द कैसे आएगा?
एक भिखारी था। इधर-उधर गलियों में भीख मांगता फिरता था। एक दिन उसका भाग्य चमका । एक राजा की मृत्यु हो जाने के बाद उसे वहां का राजा बना दिया गया। भिखारी राजा बन गया। उसे सोने के सिंहासन पर भी बिठा दिया गया। उसके सिर पर रत्नजटित मुकुट भी पहना दिया गया और छत्र-चंवर भी ढलने लगे। लोग उसकी जय-जयकार भी करने लगे। लेकिन भिखारी अपने पूर्वसंस्कारों को समाप्त नहीं कर सका था, इसलिए राजा बन जाने पर भी उसके मन में से भिखारीपन नहीं गया इसलिए उसे रोजा बनने का आनन्द प्राप्त नहीं हुआ। जब मन्त्री आया तो उसके हृदय की धड़कन बढ़ गई। भिखारी राजा मन ही मन डर रहा है कि यह मुझे कुछ कह न दे । अपमानित होने का डर उसे सता रहा था। किसी-किसी मामले में उसे भी कुछ परामर्श देने की इच्छा तो होती थी; मगर कुछ कह नहीं सकता। एक बार कुछ साहस बटोरकर कुछ कहा भी सही, लेकिन मंत्री
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