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आनन्द प्रवचन : भाग ८
जीवन को यथार्थ रूप में समझो
अगर जीवन को ठीक ढंग से यथार्थ रूप में देखने-परखने की शक्ति आ जाए, विवेक दृष्टि खुल जाए तो मनुष्य जीवन का यथार्थ मूल्यांकन करके उसके निश्चित स्वरूप में मनुष्य स्थिर हो सकता है, उसके वास्तविक उद्देश्य को सिद्ध करने में लग सकता है, हेय-ज्ञेय उपादेय का विवेक करके यथायोग्य न्याय दे सकता है, जीवन का यथार्थ उपयोग कर सकता है ।
पाश्चात्य विचारक जॉनसन ठीक कहता है - "Life, like every other blessing, derives its value from its use alone. Not for itself, but for a nabler end the eternal gave it and that end is virtue."
"जिन्दगी दूसरी तमाम देनों की तरह एक देन है । इसका मूल्य मनुष्य स्वयं इसका सुन्दर उपयोग करके बढ़ाता है । जीवन अपने आप के लिए नहीं, परन्तु शानदार परिणाम लाने के लिए शाश्वत आत्मा ने दिया है, और जीवन का वह शानदार अन्त ही उसका मूल्य है ।"
जीवन के सम्राट बनो, गुलाम नहीं
मूल बात मानव-जीवन को ठीक रूप से समझने, परखने और यथार्थरूप से उसका उपयोग करने की है । हमारा जीवन आत्मा के केन्द्र पर स्थित है । अगर आत्मा है तो यह जीवन-जीवन है, अगर आत्मा नहीं है तो केवल शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, हृदय आदि के रूप में जीवन कुछ नहीं है । उस जीवन का कोई अस्तित्व नहीं है, जिसमें शरीर, मन, बुद्धि आदि तो हों लेकिन आत्मा न हो। इसका अर्थ यह हुआ कि आत्मा सूर्य की तरह एक प्रकाशमान तत्त्व है, जिसके चारों ओर शरीर, मन, इन्द्रियाँ आदि ग्रहों की तरह घूमते हैं । इसी आत्मा का प्रकाश शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि आदि पर पड़ रहा है, दूसरे जो तत्व हैं, उन पर भी । देखना तो यह है कि आत्मा अपने आप में ठीक प्रकाशमान है या नहीं, अपनी शुद्ध स्थिति में है या नहीं ? जब आत्मा प्रमादवश अपने पर शरीर आदि पदार्थों को हावी होने देता है, तब शरीर आदि उसके सेवक नहीं, मालिक से बन बैठते हैं । वे आत्मा का हुक्म नहीं मानते, आत्मा ही उनका गुलाम बन बैठता है । इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा था
असंखयं जीवियं मा पमायए, जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं । एवं वियाणाहि जणे पमत्त े, किण्णू विहिंसा अजया गर्हिति ।।
मनुष्यो ! तुम्हारा यह जीवन असंस्कृत है । एक दिन आत्मा का प्रकाश हटते ही यह समाप्त हो जाने वाला है । इसलिए प्रमाद मत करो। इसे समझने का प्रयत्न करो, इसका सदुपयोग करने का पुरुषार्थ करो, अन्यथा, तन के साथ ही मन का
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