Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार ...........
पर्थ - जो पुरुष धर्म विना सुखानिकौं चाहै है सो यह बीज बिना धान्यनिकौं चाहै है, अर मेघविना जलनिकौं चाहै है, अर दुग्धविना घृतनि कौं चाहै है, अर वृक्ष विना फूलनिकौं चाहे है, अर सूर्य विना दिनकौं चाहै है।
भावार्थ- जैसे बीजादिक हैं ते धान्यादिकनिके कारण हैं तैसैं धर्म सुखनिका कारण है, अर कारण विना कार्य की उत्पत्ति चाहै है सो होय नांही तातै पुरुषार्थीनिकरि धर्मका संग्रह करना योग्य है ॥२१॥
पायांति लक्ष्म्यः स्वयमेव भव्यं, धर्म दधानं पुरुषं पवित्राः । प्रसूनगन्धस्थगिताखि ताशं,
सरोजिनीखण्डमिवातिमाता ॥२२॥ . अर्थ- फूलनिकी सुगन्ध करि व्याप्त करी है समस्त दिशा जाने ऐसा जो कमलनोनिका वन ता प्रति जस भौंरानिकी पंकति स्वयमेव आय प्राप्त होय है तैसें धर्मकौं धारन करता जो भव्यपुरुष ता प्रति पवित्र लक्ष्मी स्वयमेव आय प्राप्त होय है ॥२२॥ निषेवते यो विषयं निहीनो, धम निरकृत्य सुखाभिलाषी। पीयूषमत्यस्य स कालकटं, सुदुर्जरं खादति जीवितार्थी ॥२३॥
अर्थ -जो नीच पुरुष धर्मका निराकरण करि सुखका अभिलाषी विषयनिकों सेवै है सो अमृतकौं त्यागि करि जीवनेका अर्थी प्रबल कालकूट बिषकू खाय है ॥२३॥ भोगोपभोगाय करोति दीनो, दिवानिशं कर्म यथा प्रयत्नः । तथा विधत्ते यदि धर्ममेकं, क्षणं तदानीं किमु नैतिसौख्यम् ॥२४॥
अर्थ-जैसे यहु दीन भया सन्ता यत्नसहित रातदिन भोगोपभोगके अर्थ कर्म करै तैसें जा क्षणमात्र भी धर्मकौं धारै तो कहां सुखकों प्राप्त नहीं होय, होय ही हो ॥२४॥