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अमरदीप
कंती जे वा वयोऽवत्था, जुज्जते जेण कम्मुणा । णिवत्ती तारिसे तीसे, वायाए व पडिसुका ॥१८॥ ताहं कडोदयुभूया, नाणा गोय (गाय) विकप्पिया। भंगोदयाणुवत्तते, संसारे सम्वदेहिणं ॥१६॥ कंदमूला जहा वल्ली, वल्लीमूला जहा फलं। मोहमूलं तहा कम्म, कम्ममूला अणिच्चया ॥२०।। बुझंते बुज्झए चेव, हेउजुत्तं सुभासुभं । कंद-संवाण-संबद्ध, वल्लीणं व फलाफलं ॥२१॥ छिण्णादाणं सयं कम्म, भुज्जए तं न वज्जए। छिन्नमूलं व वल्लीणं, पुव्वुप्पण्णं फलाफलं ॥२२॥ छिन्नमूला जहा वल्ली, सुक्कमूलो जहा बुमो । नट्ठमोहं तहा कम्म, सिण्णं वा हयणायकं ॥२३॥ अप्पारोही जहा बीयं, धूमहीणो जहाऽनलो। छिन्नमूलं तहा कम्मं, नट्ठसण्णोवदेसओ ॥२४॥ जुज्जए कम्मुणा जेणं, वेसं धारेइ तारिसं । वित्त-कंति-समत्था वा, रंगमज्झे जहा नडो ॥२५ संसार-संतई चित्ता, देहिणं विविहोदया। सवा दुमालया चेव, सम्वपुप्फ-फलोदया ॥२६॥
अर्थात् –'जिस प्रकार देहधारी नाना प्रकार के अच्छे-बुरे वस्त्रों से युक्त होता है, उसी प्रकार वह (वर्तमान जीवन में जो) नाना प्रकार के शुभाशुभ कार्य करता है, उसी को ही वह सम्पूर्ण मान बैठता है' ॥१७॥
'जिस वय और अवस्था में जिस कर्म से जो क्रान्ति (परिवर्तन) प्राप्त होती है, उसकी वैसी ही निष्पत्ति होती है, और वाणी से भी वैसा ही सुना जाता है' ॥१८॥
__ 'नानाविध गोत्रों (गात्रों- शरीरों) के विकल्प आत्मा द्वारा कृत कर्मों के उदय से उद्भूत होते हैं। संसार के समस्त देहधारी इन्हीं विकल्पों के उदय के अनुसार होते हैं ॥१९॥ ___'कन्द से लता उत्पन्न होती है, और लता से जैसे फल पैदा होते हैं, इसी प्रकार मोह-मूल से कर्म आते हैं और कर्म ही अनित्यता का मूल है' ॥२०॥