Book Title: Amardeep Part 02
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 282
________________ २५६ अमरदीप भगवान् पार्श्वनाथ के युग की एक घटना है । जयघोष और आचार्य विशाख दोनों एक ही गुरु के शिष्य थे । परन्तु दोनों के आचार में रातदिन का अन्तर था । आचार्य विशाख के आश्रम में कामभोग और विलास का साम्राज्य था, जबकि जयघोष के आश्रम में स्त्री. का निवास नहीं होता था । आचार्य विशाख भौतिकवादी और तांत्रिक विद्या- पारंगत था । अनेक महाजातांत्रिक विद्या के चमत्कार से उसे गुरु मानते थे । जयघोष के 'सिद्धवैताल' नामक एक शिष्य था । विशाख के अनुयायी 'सिद्ध-वैताल' को बहकाने लगे कि 'तू अपने गुरु जयघोष को छोड़ दे और विशाख को गुरु मान ले । परन्तु उसने ऐसा करने से साफ इन्कार कर दिया । अतः विशाख के शिष्यों ने सिद्धवैताल को भ्रष्ट करने का षड्यन्त्र रचा। एक बार उन्होंने रोहिणी नाम की नृत्यांगना के नृत्य का आयोजन किया। पहले दिन सिद्धवैताल उसके नृत्य से बिल्कुल विचलित न हुआ। दूसरे दिन एक अंधेरी गुफा में रात्रि को उस नृत्यांगना का नृत्य रखा गया । रोहिणी के नेत्र कटाक्ष से सिद्धवंताल के मन में विकार जागा । रोहिणी उसे कहती है- मैं अपनी माँ का आशीर्वाद लेकर अभी आती हूँ । इधर सिद्धवैताल के मन में मथन जागा । गुरु का स्मरण किया। गुरु के समक्ष अपने हृदय में प्रविष्ट पाप की आलोचना की, और कामिनी संग से बचाने की प्रार्थना की। गुरु विचक्षण थे । उन्होंने कहा - 'तू घबरा मत ! नारी को भगिनी या माता के रूप में देखा जा सकता है। तू निष्पाप और निष्कपट रहना । सब ठीक हो जायेगा ।' उधर रोहिणी माता का आशीर्वाद लेकर आई । सिद्धवैताल ने रोहिणी को आसन पर बिठाकर कहा - 'मुझे तुम्हारी पूजा करनी है।' वह अत्यन्त प्रसन्न हुई । वैताल ने उसके गले में पुष्पहार पहनाया और कहा - "जय हो माता भगवती ! आज से तुम्हीं मेरी सच्ची माता हो। मैंने अपनी माता का सुख नहीं पाया, तुम मुझे अपना पुत्र मानो ।" रोहिणी यह सुनकर स्तब्ध हो गई । उसकी आँखों से हर्षाश्र उमड़ पड़े। रोहिणी की माता जयकुण्डला ने जब यह सुना कि मेरी पुत्री ने माता-पुत्र का सम्बन्ध बाँधा है तो वह भी आश्चर्यचकित हो गई। रोहिणी ने नृत्य-गान आदि सब छोड़कर आजीवन ब्रह्मचारिणी रहने की प्रतीज्ञा ले ली । रोहिणी को देखकर वैताल के जीवन में जो दृष्टिदोष हुआ । उसके प्रायश्चित्त के रूप उसने गुरु से २१ दिन के निर्जल उपवास ग्रहण किये उपवास के दिनों में वह ध्यानस्थ रहता था ।

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