Book Title: Amardeep Part 02
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 313
________________ अन्तर्दृष्टि साधक की वृत्ति प्रवृत्ति २८७ भावी दुःखों की परम्परा को नहीं देखते । जैसे- भोली मछली केवल आटे को देखती है, उसके समान पीछे छिपे हुए ( उसकी मृत्यु के कारणभूत) काँटे को नहीं देखती ! आत्मा ही कर्मों का कर्ता है, और आत्मा ही उनका भोक्ता है । इसलिए साधक आत्मा के अभ्युदय के लिए पापकर्म करना छोड़ दे ॥ १० ॥ हत्यारे ने अभी मारना छोड़ दिया है, (किन्तु उसकी हिंसक वृत्ति नहीं मिटाई गई ) विष ( घर में रखा है) खाया नहीं गया, ( संभव है, भूल से उस विष का उपयोग हो जाय ), इसी प्रकार सर्प ( घर में कहीं बैठा है) पकड़ा नहीं गया है, ( वह छिपा हुआ सर्प कभी भी प्रहार कर सकता है ) (तीनों जब तक दूर न किया जाय, तब तक ) इनसे भय बना रहता है, (इसी प्रकार पाप की वृत्ति प्रवृत्ति का समूल परिहार करना चाहिए ।) ॥ ११ ॥ ( पिपासाकुल ) सर्प या सींग वाले पशु जब स्वच्छ पानी की ओर दौड़ते हैं, तब भीरु, व्यक्ति ( उनके बीच में न आकर डरकर दूर से ही ) उन्हें छोड़ देते हैं, उसी प्रकार दोषभीरु व्यक्ति को दूर से ही पाप को छोड़ (रोक) देना चाहिए || १२ | पाप से दूर होने के लिए पहली शर्त है - पाप को पाप माना जाय । पाप के प्रति उपेक्षा करने वाला या उसे स्वीकार न करने वाला एक नया पाप और करता है । यदि लाचारीवश कोई पाप हो गया है, तो उसके प्रति पश्चाताप और आलोचनापूर्वक प्रायश्चित्त करने का प्रयत्न होना चाहिए । पापकर्मों के विपाकोदय के समय आत्मा दुःख का अनुभव करता है, परन्तु एक दुःख नये अनेक दुःखों की परम्परा लेकर आता है। दोषी व्यक्ति नये दोषों को ग्रहण करता है और इस रूप में वह पापकर्मों को जन्म देता है ॥१३॥ आशय यह है कि दुःख आने पर अगर दोषी व्यक्ति का मन शान्त है तो वह कर्मों का और तज्जन्य दुःख का क्षय करता है । किन्तु विपाकोदय के समय मन अशान्त हो गया और वह निमित्तों पर आक्रोश करने लगा तो दुःखभोग के समय नये कर्मों का उपार्जन कर लेगा । इस प्रकार वह भविष्य दुःखों की नींव डाल देता है । इस जीवन से आगे भी शुभाशुभ फल मिल ेगा प्रश्न होता है कि यह जीवन बिताकर मनुष्य जब चिरनिद्रा में सो जाता है, तब क्या जीवनतत्त्व समाप्त हो जाता है ? यदि ऐसा है तो फिर

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