Book Title: Amardeep Part 02
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Aatm Gyanpith

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Page 323
________________ अन्तर्दृष्टि साधक की वृत्ति:प्रवृत्ति २९७ अभाव के कारण होते हैं । तृष्णा का गुलाम सारी दुनिया का गुलाम है। तृष्णाविजयी सारी दुनिया पर विजय पा लेता है। __ तृष्णाशील व्यक्ति का जीवन सदैव भौतिक प्रवृत्तियों में बीतता है। स्वाध्याय, ध्यान, जप आदि के महत्वपूर्ण समय का उपयोग वह अपने बनाव शृगार में, सौन्दर्य प्रसाधन में बिताता है। नेत्रांजन, बालों की सजावट, स्नो-पाउडर आदि में घंटों लगा देने वालों के पास आत्म-चिन्तन एवं साधना के लिए पाँच मिनट का समय नहीं है। ज्ञानी की समस्त क्रियाएँ सोद्देश्य और आत्मसाधना को लेकर होती है, जबकि रागी एवं तृष्णाशील की समस्त क्रियाएँ रूपतृष्णा, लोभतृष्णा आदि के रूप में राग-पोषक होती हैं। देही को रक्षा के लिए देह की रक्षा करे देह से अनेक पाप होते हैं, इसलिए क्या साधक देह का त्याग कर दे ? या कोई और उपाय है, जिससे वह देह की रक्षा करता हुआ, उसे पापकर्मों से बचाए ? इस सन्दर्भ में अर्हतर्षि कहते हैं सागरेणावणिज्जोको आतुरो वा तुरंगमे । भोयणं भिज्जएहिं वा जाणेज्जा देहरक्खजं ॥५२।। माहारादी - पडीकारो सव्वण्णु - वयणाहितो। अप्पा हु तिव्व-वहिस्स संजमट्ठाए संजमो ॥४६॥ अर्थात्-समुद्र में नाविक (लक्ष्य तक पहुंचने के लिए) नौका की रक्षा करता है, आतुर व्यक्ति.घोड़े की रक्षा करता है, भिद्यक (भूखा) व्यक्ति भोजन की रक्षा करता है, वैसे ही साधक देह की रक्षा करता है ।।५२॥ पेट (भूख) की ज्वाला को शान्त करने के लिए आहारादि द्वारा प्रतीकार करना सर्वज्ञ वचनों से सम्मत है, वह संयमस्थित साधक के संयम के लिए हितप्रद है ॥४६॥ - साधक देह की आसक्ति नहीं रखता, किन्तु देह तो रखता ही है। देह को वह धर्मपालन के साधन के रूप में स्वीकार करता है। नाविक समुद्र की लहरों में नौका की रक्षा करता है, क्योंकि वह जानता है कि नौका द्वारा ही उसकी जीवन नैया तिर रही है, और तट पर पहुंचने के बाद वह स्वयं नौका को छोड़ देता है । इसी प्रकार अपनी मंजिल पर पहुंचने के लिए घुड़सवार घोड़े पर चढ़ता है, लेकिन मंजिल पर पहुंचने के बाद स्वयं घोड़े से उतर जाता है । इसी प्रकार क्षुधित व्यक्ति भूख लगने पर भोजन करता

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