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अन्तर्दृष्टि साधक की वृत्ति प्रवृत्ति
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पहचाने । कर्त्ता अर्थात् आत्मा का अनुसरण करके साधक देहधारण को दूर (समाप्त) करे || १ ||
इन्द्र का वज्र, प्रदीप्त आग, कर्ज और शत्रु, ये सभी व्यक्ति को संकट में डाल सकते हैं, पर ये सभी आत्मा को उतनी पीड़ा नहीं पहुंचा सकते, जितना कि मन में घुसा हुआ ऋद्धि का गर्व । गौरव ऋद्धि का हो, रस का हो या साता का एक प्रकार से रौरव बनकर मन में जब धधकता है; तो सद्गुणों को भस्म कर डालता है । रावण तथा सुभूम चक्रवर्ती जैसे इस गौरव की आग में ही राख हो गये। हिटलर और मुसोलिनी के गर्व ने जर्मनी और इटलो का पतन करवाया ।
कर्म चाहे सुखरूप हो या दुःखरूप, उसका अन्तिम परिणाम दुःखरूप ही होता है । मरुदेवी माता को पूर्ण सातावेदनीय का उदय होने पर भी जन्म-मरण का एवं वियोग का दुःख तो था ही । अतः सम्यग्दर्शन- सम्पन्न आत्मा सुख- सातारूप कर्म का भी गर्व न करे, उसका भी अन्त करे ।
सुरम्य सरोवर भी अगर मगरमच्छों से व्याप्त है, या उसका पानी far मिश्रित है तो कोई भी उसमें डुबकी लगाना नहीं चाहेगा । अनिन्द्य सुन्दरी विषकन्या का स्पर्श प्राणघातक होता है, माँस के टुकड़ों से युक्त नदी का प्रवाह मछलियों के लिए प्राणघातक हो सकता है, इसी प्रकार सुखदायक शुभकर्म भी अशुभ विपाक को लिए रहता है । सुख की अत्यधिकता से या गर्व से मनुष्य की विवेक ज्योति लुप्त हो जाती है । वह सुख के गर्व में पागल हो उठता है । दुर्योधन, रावण और कोणिक सुख के अहंकार में पागल ही तो थे ।
पुण्य भले ही सुखदायक लगता हो, है वह बन्धहेतुक ही । पाप लोहे की बेड़ी है तो पुण्य सोने की बेड़ी है । पाप कारागृह की काली कोठरी है तो पुण्य नजरबन्द कैद है। नजरबंद कैद में व्यक्ति महलों में रहता है और महलों के पूरे आराम उसे मिलते हैं, किन्तु मुक्ति नहीं मिल सकती । पुण्य दुनिया के पूरे सुख दे सकता है, किन्तु संसार की नजरकैद से मुक्ति नहीं दिला सकता । मुक्ति का अभिलाषी साधक पुण्यरूपी स्वर्ण श्रंखला को भी तोड़ना चाहेगा । वह इसमें आसक्त नहीं होगा । पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त सुख से भी वह आसक्त नहीं होगा ।
लिंग और वेष आदि का महत्त्व आत्मनिष्ठा में है साधक को लिंग और वेष आदि को महत्त्व न देकर आत्मा को लक्ष्य में रखकर साधना करने का निर्देश देते हुए अर्हतषि कहते हैं