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२६४ अमरदीप व्यक्ति मोह के जाल में फंसता है और दुःख परम्परा को निमन्त्रण देता है। शरण्यभूत वीतरागदेव की आज्ञा कठोर होने पर भी उसका सम्यक् रूप से काया के द्वारा अनुपालन करना आवश्यक है। वीतरागदेव की कल्याणप्रद आज्ञाओं का यथोचित पालन सुख की शाश्वत राह दिखाता है । आत्मशक्ति के साथ उसे अनेक लब्धियां भी प्राप्त हो जायँ तो कोई आश्चर्य नहीं। जिनेन्द्रदेव की आज्ञा के यथावत् पालन से शल्योद्धरण सम्भव है। साधक इसका सम्यक् परिपालन करके दावानल से निकल कर शाश्वत शान्ति पा सकता है तथा सभी दुःखों से मुक्त हो सकता है। वीतरांगदेव का शासन सम्यक्त्वशील आत्मा को अत्यन्त प्रिय लगता है। ऋद्धि गर्व और साता गर्व-दुःखकारक
अब अर्हतर्षि ऋद्धि और साता के गर्व से होने वाले दुःखों को जानकर उनसे दूर रहने का संकेत करते हैं--
इंदासणी ण त कुज्जा, दित्तो वण्ही अणं अरी। आसादिज्जंत-सम्बन्धो, जं कुज्जा रिद्धिगारवो ॥४३॥ विस - गाह - सरछुढं, विसं - वामाणुजोजितं । सामिसं वा णदी-सोय, यं साताकम्मं दुहंकरं ॥४४॥ हेम वा आयसं वा वि बधणं दुक्ख कारणं । महग्घस्सावि दंडरस णिवाए दुक्खसंपदा ।।५।। असज्जमाणे दिवम्मि धीमता कज्जकारणं ।
कत्तारे , अभिवारित्ता विणीय देहधारणं ॥५१॥ अर्थात्- इन्द्र का वज्र, प्रज्वलित अग्नि, ऋण और शत्रु इतनी हानि नहीं पहुंचा सकते, जितना कि मन से आस्वादन (रस) लिया जाता हुआ ऋद्धि का गर्व हानि पहुंचाता है ॥४३॥
_ विष और मगरमच्छ आदि से व्याप्त सरोवर, विषमिश्रित नारी (विषकन्या) तथा मांसयुक्त नदी-स्रोत की भांति सुख के कर्म भी अन्त में दुःखकारक होते हैं ॥४४॥
बन्धन लोहे का हो, या सोने का दुःख का ही कारण होता है। दण्ड (डण्डा) कितना ही मूल्यवान क्यों न हो, (पीठ आदि पर) पड़ने पर दुःख तो अवश्य होता है ॥५०॥
दिव्य लोक (स्वर्ग) में अनासक्त होकर बुद्धिमान कार्य और कारण को